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परागण किसे कहते हैं, प्रकार, परिभाषा, स्वयं परागण क्या है, परागण के उदाहरण (Pollination in hindi, Pollination meaning hindi)

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परागण किसे कहते हैं (Pollination in hindi)

“जब परागकण परागकोष से निकलकर उसी पुष्प या उस जाति के दूसरे पुष्पों के वर्तिकाग्र तक पहुँचते हैं, इस क्रिया को परागण कहते हैं। “

“परागकण (pollen grains) नर-जनन इकाई (male reproductive units) हैं। ये परागकोष (anther) में उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार मादा अंग, अर्थात अंडप (carpels) अपने अंडाशय (ovary) में मादा-जनन इकाई बीजांड (ovules) उत्पन्न करते हैं। परागकोष के फटने से परागकण पुंकेसर से स्वतंत्र हो जाते हैं।”

परागण दो प्रकार का होता है – स्व-परागण (self-pollination) तथा पर-परागण (cross-pollination)।

स्व-परागण या स्व युग्मन (Self-pollination, or autogamy in hindi )

जब एक ही पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचते हों या उसी पौधे के अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचते हों, यह स्व-परागण कहलाता है।

पर-परागण ( Cross-pollination hindi)

जब एक पुष्प के परागकण दूसरे पौधे पर अवस्थित पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँचते हैं तब उसे पर-परागण कहते हैं।

पर-परागण दो प्रकार का होता है— सजातपुष्पी परागण (geitonogamy) तथा पर-निषेचन (xenogamy)।

जब एक पादप के एक पुष्प के परागकणों का उसी पादप के दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्रों तक का स्थानांतरण होता है तब वह सजातपुष्पी परागण कहलाता है।

सजातपुष्पी परागण लगभग स्व-युग्मन (autogamy) जैसा ही है, क्योंकि इस परागण में परागकण उसी पादप से आते हैं। क्रियात्मक रूप से सजातपुष्पी पर परागण है, क्योंकि परागकणों के स्थानांतरण के लिए एक कारक (agent) की आवश्यकता पड़ती है। पर-निषेचन में भिन्न पादपों के परागकण भिन्न पादपों के वर्तिकाग्र पर स्थानांतरित होते हैं। इस प्रकार के परागण में हवा, कीट, पानी आदि एजेंट सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

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स्व-परागण या स्वयं-परागण (Self-pollination in hindi) –

स्व- परागण केवल उभयलिंगी या द्विलिंगी (bisexual) पौधों में ही होता है। द्विलिंगी पौधों में कभी-कभी ऐसी संरचना भी होती हैं जो स्व-परागण (self-pollination) को पूर्णरूप से रोक देती है।

पौधों में फूल उन्मील परागणी (chasmogamous) या अनुन्मील्य परागण (cleistogamous) होते हैं। कुछ पौधों, जैसे ऑक्जेलिस (Oxalis) में दोनों प्रकार के फूल बनते हैं। उन्मील परागणी पुष्प अन्य प्रजाति के पुष्पों के समान ही होते हैं जिसके परागकोष एवं वर्तिकाग्र अनावृत्त (exposed) होते हैं। अनुन्मील्य परागणी पुष्प कभी भी अनावृत्त नहीं होते हैं।

अनुन्मील्य परागण (Cleistogamy hindi) –

कुछ पौधों में प्ररोह पर साधारण रंगीन पुष्प उत्पन्न होते हैं तथा भूमि के अंदर भी एक विशेष प्रकार के उभयलिंगी एवं होमोगैमस (homogamous ) पुष्प होते हैं जो खुलते ही नहीं हैं। ऐसे पुष्पों में परागकण पुष्प के अंदर ही बिखरने से स्वयं-परागण होता है। इन पुष्पों को अनुन्मील्यकी पुष्प (cleistogamous flowers) कहते हैं।

इनके उदाहरण हैं— वायोला (Viola), कनकौआ (Commelina), मूँगफली (groundnut) और पोर्चुलाका (Portulaca) । पैंजी (Viola) के क्लीस्टोगैमस फूलों में परागकोष वर्तिकाग्र से सटे रहते हैं। क्लीस्टोगैमस पौधों में पुष्प बहुत छोटे होते हैं। ये कभी रंगीन नहीं होते। इनमें न तो कोई मकरंद (nectar) का स्राव (secretion) होता है और न ही कोई गंध (smell)। इस प्रकार के पुष्पों में परागकोष एवं वर्तिकाग्र एक-दूसरे के बिलकुल नजदीक स्थित होते हैं। क्लिस्टोगैमी पौधों के लिए फायदेमंद होता है, क्योंकि बिना पर-परागण के साधनों के भी इन पौधों में बीज बन जाते हैं।

समकालपक्वता (Homogamy hindi ) –

स्व- परागण करनेवाले पुष्प में परागकोष तथा वर्तिकाग्र एक ही समय में परिपक्व होते हैं। इस कारण स्व-परागण आसानी से होता है। इस दशा में कुछ परागकणों का, कीटों या हवा की सहायता से, उसी फूल के वर्तिकाग्र पर पहुँचना संभव हो जाता है।

  • स्व-परागण का महत्त्व (Significance of self-pollination)
  • इस प्रकार के पुष्पों में परागण और निषेचन सुनिश्चित हो जाता है।
  • इस प्रकार के परागण के फलस्वरूप संतान दुर्बल हो जाती है।

पर-परागण (Cross-pollination hindi) —

परपरागण एकलिंगी फूलों (unisexual flowers) में नियमत: होता है। द्विलिंगी फूलों (bisexual flowers) में भी यह सामान्यता पाया जाता है। इसके लिए फूलों में कुछ अनुकूलन (adaptations) हो जाते हैं। परपरागण द्वारा बने बीज अच्छे होते हैं। पुष्पों की विशेष अवस्थाएँ निम्नवत हैं।

एकलिंगता (Dicliny) –

एकलिंगी पुष्पों (unisexual flowers) में पर-परागण ही होता है, अर्थात एकलिंगाश्रयी (dioecious) पौधों में परागण का यही एक साधन है। उभयलिंगाश्रयी (monoecious) पौधों में पर-परागण असफल होने पर स्वयं परागण (स्व-परागण ) होता है । पुष्प की इस अवस्था को गेइटोगैमी (geitonogamy) तथा ऐसे पुष्पों को गेइटोगैमस (geitonogamous) पुष्प कहते हैं।

स्वयंबंध्यता (Self-sterility) —

जब एक पुष्प के जायांग (gynoecium) का वर्तिकाग्र उसी पुष्प के परागकणों से परागित नहीं होता है तब इस अवस्था को स्वयंबंध्यता कहते हैं। आलू, मटर, पिटुनिया (Petunia) इत्यादि पौधे स्वयंबंध्य होते हैं।

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भिन्नकालपक्वता (Dichogamy) –

जब एक द्विलिंगी पुष्प (bisexual flower) के पुंकेसर एवं वर्तिकाग्र भिन्न-भिन्न समय पर परिपक्व होते हैं तब पुष्प की इस अवस्था को भिन्नकालपक्वता तथा पुष्प को भिन्नकालपाकी (dichogamous) कहते हैं। ऐसे पुष्पों में परपरागण नहीं होने पर स्वयं-परागण होता है। डाइकोगैमी दो प्रकार की होती है —

पुंपूर्वता (Protandry) —

जब पुष्प में परागकोष पहले परिपक्व होते हैं। तब इस अवस्था को पुंपूर्वता तथा पुष्पों को पुंपूर्वी (protandrous) कहते हैं। यह अवस्था सूर्यमुखी कुल (Compositae family), मालवेसी तथा अम्बेलीफेरी में पाई जाती है। इस अवस्था में जब परागकोष परिपक्व होते हैं तथा स्फुटित (dehisce) होते हैं तब परागकण दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्र को परागित करते हैं।

स्त्रीपूर्वता (Protogyny) —

इस प्रकार के पौधों में पहले अंडप (ovule) परिपक्व होता है, जैसे एनोनेसी (Annonaceae), मैग्नोलिएसी (Magnoliaceae) में। इस प्रकार की अवस्था को स्त्रीपूर्वता तथा पुष्पों को स्त्रीपूर्वी (protogynous) कहते हैं ।

उभयलिंगिता (Herkogamy) —

कुछ पुष्पों के परागकोष तथा वर्तिकाग्र के बीच में कुछ प्राकृतिक रोध (physical barriers) होते हैं जिनके कारण परागण या तो मुश्किल होता है या होता ही नहीं है । पुष्पों की इस अवस्था को उभयलिंगिता या हरकोगैमी तथा पुष्पों को उभयलिंगी या हरकोगैमस (herkogamous) कहते हैं। ऐसे पुष्पों में वर्तिकाग्र इतना लंबा हो जाता है कि परागकोष वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकते।

कुछ पौधों, जैसे मदार (Calotropis ) में परागकण परागपिडों (pollinia) में संगठित रहते हैं। इसमें परागण कीटों द्वारा ही होता है।

विषम वर्तिकात्व (Heterostyly) —

कुछ पुष्पों में वर्तिका और परागकोष विभिन्न लंबाई, रचना और स्थिति के होते हैं जिससे उन पुष्पों में केवल परपरागण ही संभव होता है। इस प्रकार के पुष्प द्विरूपी (dimorphic) या त्रिरूपी (trimorphic) होते हैं। वर्तिका के इस लक्षण को विषम वर्तिकात्व या हेटेरोस्टाइली (heterostyly) कहते है। द्विरूपी पुष्प प्राइमुला (Primula) में पाए जाते हैं।

पर-परागण बाहरी साधनों (agents) द्वारा होता है जो एक फूल के परागकणों को ले जाकर पौधों के फूल की वर्तिकाग्र पर जमा कर देते हैंबाहरी साधनों के आधार पर पर परागण (cross-pollination) को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है।

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कीट-परागण (Entomophily in hindi):

उन पुष्पों को जिनमें कीट (insects) द्वारा परागण होता है, उन्हें कीट-परागित पुष्प (insect-pollinated flowers) कहा जाता है।

मधुमक्खियाँ, तितलियाँ, भृंग, बर्रे इत्यादि फूलों से मकरंद (nectar) प्राप्त करने के लिए या उनसे आकर्षित (attract) होकर आते हैं। कीट के किस्मों के आधार पर पुष्पों को मधुमक्खी पुष्प (bee flower), शलभ पुष्प (moth flower), मक्खी पुष्प (fly flower) या तितली पुष्प (butterfly flower) कहते हैं। कीट-परागित पुष्पों में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं।

  1. अकेला पुष्प बड़ा और रंगीन होता है। छोटे पुष्प एक साथ मिलकर एक बड़े पुष्प के समान रचना बनाते हैं (जैसे सूर्यमुखी में)।
  2. फूल मुंगधित होते हैं और उनमें कीट को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन या मकरंद विद्यमान रहता है।
  3. वर्तिकाय की सतह चिकने पदार्थ का स्राव करती है जिससे परागकण उस पर चिपक जाते हैं।
  4. परागकण बड़े, मोटी भित्तिवाले तथा उनकी सतह पर नुकीले काँटे की तरह की संरचनाएँ होती हैं।

कीट-परागित पुष्पों में अनुकूलन (Adaptations in insect-pollinated flowers)

रंग (Colour) –

पुष्प जितना रंगीन होता है, कीट उस पर उतना ही ज्यादा आकर्षित होते हैं। मधुमक्खियों को आकर्षित करनेवाले फूलों का रंग नीला, पीला या मिश्रित रंगवाला होता है। शलभ या मॉथ (moth) को आकर्षित करनेवाले फूल अत्यंत सुंगधित होते हैं । तितलियाँ अधिकतर लाल या नारंगी फूलों की ओर ज्यादा आकृष्ट होती हैं। मक्खियाँ वैसे फूलों को पसंद करती हैं जिनमें न तो सुगंध होता है और न ही भड़काऊ रंग। केला, अरबी, यूफॉर्बिया (Euphorbia) इत्यादि में कीटों द्वारा परागण होता है।

कभी-कभी जब फूल बहुत छोटे होते हैं या फीके होते हैं तब फूल के अन्य भाग रंगीन और शोभनीय हो जाते हैं और कीड़ों को आकर्षित करते हैं। बोगेनविलिया (Bougainvillea) और लाल पत्नी (Euphorbia pulcherrima) में सहपत्रों का रंग गहरा रंगीन हो जाता है। इससे फूल अत्यंत आकर्षक हो जाते हैं और कीट उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं।

मुसेडा (Mussaenda) नामक पौधे में एक बाह्य दल बड़ी-सी सफेद पत्ती के रूप में रूपांतरित हो जाता है। यह कीट को आकर्षित करने के लिए विज्ञापन झंडे (advertising flag) का कार्य करता है।

सुगंध (Scent)-

पुष्पों की सुगंध कीट को आकर्षित करती है। इस प्रकार के पुष्प मुख्यतया रात को खिलते हैं, जैसे रात की रानी, (Cestrum nocturnum), हरसिंगार (Nyctanthes arbor-tristis), जूही (Jasminum auriculatum)।

कुछ फूल ऐसी गंध फैलाते हैं जो मनुष्य को पसंद नहीं है, परंतु छोटे कीड़ों को बहुत पसंद आती है, जैसे जमीकंद (Amorphophallus) के पुष्पक्रम की परिशेषिका (appendix ) ।

मकरंद (Nectar) —

दलों (petal) के आधार पर या कभी-कभी पुंकेसर के आधार पर मकरंद ग्रंथियाँ (nectar glands) होती हैं। इन ग्रंथियों से एक मीठे रस का स्राव होता है जिसके लिए कीट इस प्रकार के फूलों की ओर आकर्षित होते हैं।

पुष्प में घुसने पर कीट के शरीर में परागकण चिपक जाते हैं। जब ये कीट दूसरे पुष्प पर जाते हैं उस समय मकरंद चूसने के क्रम में कीट के शरीर पर चिपके परागकण वर्तिकाग्र पर चिपक जाते हैं। इस प्रकार पर-परागण की क्रिया संपन्न होती है।

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वर्तिकाग्र तथा परागकणों में अनुकूलन (Adaptations in style and pollen grains):

कीट प्रेमी फूलों के परागकण या तो चिपचिपे होते हैं या इनपर शूलमय उद्वर्ध (spinous outgrowths) होती हैं। अनेक प्रकार के कीटों के लिए परागकण एक अच्छा भोजन है।

कीट-परागित फूलों में वर्तिकाग्र (stigma) चिपचिपी होने के कारण परागकणों को आसानी से अपने अंदर चिपका लेते हैं।

कुछ पौधों में कीट-परागण का वर्णन (Description of insect-pollination in some plants):

प्राइमुला (Primula) –

इस पुष्प के दल संयुक्त होकर नालवत रचना बनाते हैं जिसके ऊपर दल (corolla) फैल जाते हैं । इस पौधे में दो प्रकार के फूल होते हैं

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पिन-आइड (Pin-eyed) —

इनमें वर्तिका (style) लंबी होती है। इस कारण वर्तिकाग्र पुष्पदल नलिका के मुख के पास पहुँच जाती है।

थ्रम-आइड (Thrum-eyed) —

इनमें वर्तिका छोटी होती है तथा पुंकेसर लंबे होकर पुष्पदल नलिका के मुख के पास आ जाते हैं।

मधुमक्खी जब श्रम आइड पुष्प पर बैठकर शुंडिका (proboscis) से मकरंद खोजती है उस समय परागकण इसके सिर पर चिपक जाते हैं। जब यह मक्खी पिन-आइड पुष्प पर बैठकर मकरंद लेने का प्रयास करती है तो परागकण वर्तिकाग्र पर चिपक जाते हैं तथा साथ-साथ पिन-आइड पुष्प के परागकण मक्खी के सिर पर चिपक जाते हैं और मक्खी के थ्रम – आइड पुष्प पर जाने से पर-परागण होता है। यह क्रम लगातार चलता है।

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साल्विया या गार्डेन सेज (Salvia or garden sage) –

इस पुष्प के बाह्य दलपुंज और दलपुंज (corolla) द्वि-ओष्ठी (bilipped) होते । ऊपरी ओष्ठ में पुंकेसर तथा वर्तिका ढँकी रहती है तथा निचला ओष्ठ रूपांतरण से चबूतरा बनाता है जिसपर कीट आसानी से बैठ सकते हैं।

इस पौधे के फूल में दो पुंकेसर होते हैं और प्रत्येक की दोनों परागकोष पालियाँ (two-lobed anther) एक लंबे मुड़े हुए योजी (connective) द्वारा पृथक होती हैं। पुंकेसरों का पुंतंतु बहुत छोटा होता है अग्रयोजी (connective) उर्वर (fertile) होता है और पश्चयोजी बंध्य (sterile) होता है। प्राकृतिक स्थिति में योजी सीधा (upright) रहता है।

इस प्रकार योजी एक लीवर का कार्य करता है। जब मधुमक्खी निचले ओष्ठ पर बैठकर शुंडिका ( proboscis) को दलनलिका के निचले भाग तक फैलाकर मकरंद लेना चाहती है तब इसी समय अबंध्य परागकोष फट जाते हैं तथा परागकण मधुमक्खी की पीठ पर बिखर जाते हैं। जब मधुमक्खी दूसरे पुष्प पर जाती है उस समय परागकण वर्तिकाग्र से चिपक जाते हैं।

यक्का (Yucca) या अंडाफल —

यक्का के पुष्प रात में खिलते हैं। परिपक्व (mature) होने पर पुष्प में वर्तिकाग्र (stigma) परागकोषों (anthers) काफी ऊँचाई पर स्थित होते हैं। पुष्प की गंध से आकर्षित होकर मादा कीट उसकी ओर आकर्षित होती है।

इस क्रिया में परागकण मादा कीट से चिपक जाते हैं। जब मादा कीट दूसरे में अंडे देने के लिए जाती है उस समय परागकण वर्तिकाग्र के संपर्क में आ जाते हैं। इस प्रकार पुष्प परागित हो जाता है। बीज और कीट के लार्वा का विकास साथ-ही-साथ हो जाता है। यह क्रिया प्रतिवर्ष होती है।

एमॉरफोफैलस (Amorphophallus), जिसका पुष्प लगभग 6 फीट लंबा होता है, में भी कीट पुष्प के अंदर अंडे देते हैं। ये कीट परागण में मदद करते हैं।

कुछ पौधों, जैसे बरगद, पीपल, अंजीर इत्यादि में पुष्प नाशपाती के आकार के पुष्पक्रम में बंद रहते हैं। इस पुष्पक्रम में एक छिद्र होता है जिसके माध्यम से कीट पात्र (receptacle) में प्रवेश करते हैं। इस पात्र में नर, मादा तथा बंध्य फूल होते हैं। मादापुष्पों के बीजांड में कीट अंडे देते हैं। ये अंडे शीघ्र ही कीट में परिवर्तित हो जाते हैं और इस क्रम भोजन बीजांड से प्राप्त करते हैं।

कीट पात्र के छिद्र से रेंगकर बाहर निकलते हैं और इसी समय परागकण परागकोषों में परिपक्व (mature) होता है। इन परागकोषों के फटने से परागकण कीट के शरीर पर चिपक जाते हैं। जब ये कीट दूसरे पुष्प के पात्र में प्रवेश करते हैं तो उस पात्र में स्थित मादापुष्प (female flowers) को परागित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त मदार या ऑर्किड में भी परागण कीट द्वारा होता है। इन पौधों में परागकण एक विशेष संरचना बनाते हैं जिसे पॉलिनिया (pollinia) कहा जाता है।

पक्षी-परागण (Ornithophily in hindi):

पक्षियों द्वारा परागित होनेवाले पुष्प बड़े, रंगीन तथा गंधहीन होते हैं। पक्षी लाल, पीले तथा नारंगी रंग के फूलों की ओर ज्यादा आकर्षित होते हैं। पक्षियों द्वारा परागित होनेवाले पौधों में झुमका (Passiflora), यूकेलिप्टस प्रमुख हैं।

कैम्पसिस रेडीकेन्स (Campsis radicans) नामक पौधे में हमिंग पक्षी से परागण होता है। मधुसंचय करनेवाली तथा भिनभिनाने वाली छोटी चिड़ियों की चोंच लंबी तथा नुकीली होती है। ये पुष्पों की मकरग्रंथियों से मकरंद चूसती हैं। इस क्रम में एक फूल के परागकण चोंच पर चिपक जाते हैं। जब पक्षी दूसरे पुष्प पर जाता है उस समय चोंच में लगे परागकण वर्तिकाग्र के संपर्क में आ जाते हैं।

चमगादड़ द्वारा परागण (Cheiropterophily in hindi):

कुछ पौधों, जैसे सेमल, कदंब में परागण चमगादड़ (bats) द्वारा होता है। चमगादड़ रात्रि के समय निकलते हैं और भोजन की तलाश में वृक्षों के फूलों की ओर आकर्षित होते हैं। एक फूल से दूसरे फूल पर जाने के क्रम में चमगादड़ परागकणों को स्थानांतरित कर देते हैं।

मैलेकोफिलस पुष्प (Malacophilous flowers in hindi):

घोंघे (snails), गिलहरी, साँप आदि जानवर भी परागण की क्रिया में सहायक सिद्ध होते हैं। घोंघे प्रायः एरेसी (Araceae) कुल के पौधों में परागण करते हैं। गिलहरी इरिथ्राइना इंडिका (Erythrina indica) तथा साँप, साँपबूटी या एरिसीमा (Arisaema) में परागण करते हैं।

वायु-परागण (Anemophily in hindi):

इस प्रकार के परागण में हवा के झोंके के साथ परागकण एक पुष्प से दूसरे पर तक पहुँचते हैं। वायु-परागित फूलों में आकर्षण, मकरग्रंथियों और सुगंध का अभाव होता है। इस कमी को पूरा करने के लिए फूलों में असंख्य परागकण बनते हैं। वायु-परागित फूलों में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं।

(i) ये पुष्प भड़कीले नहीं होते हैं।

(ii) मकर ग्रंथियों और सुगंध का अभाव होता है।

(iii) ये प्राय: छोटे होते हैं।

(iv) परागकणों की संख्या अनगिनत होती है।

(v) वर्तिकाग्र रोएँदार (hairy), पक्षवत (feathery) और शाखित (branched) होता है।

(vi) पुंकेसरों के पुतंतु लंबे और मुक्तदोली (versatile) अवस्था में चिपके होते हैं।

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(vii) कुछ पौधों, जैसे चीड़ (pine) में परागकण पंखदार होते हैं।

वायु-परागित पौधों में मक्का, चावल, गेहूँ, बाँस, घास, गन्ना, ताड़ आदि प्रमुख हैं। मक्का के एक पौधे में 1,85,00,000 के लगभग परागकण बनते हैं। मक्का के पौधे के शिखर पर नरफूलों का पुष्पगुच्छ (panicle) होता है जिसे टेसेल (tassel) कहते हैं। तने के आधार की ओर मादा फूल बनते हैं जो स्थूलमंजरी या स्पैडिक्स (spadix) से ढँका होता है।

अनेक नरम (soft), लंबे रेशमी धागे या वर्तिकाएँ (styles) बाहर निकलती हैं। ये हवा में स्वतंत्र रूप से लटकी रहती हैं। जब परागकोष फटते हैं तब परागकण हवा में बिखर जाते हैं और उड़कर मादा फूलों की वर्तिकाग्रों के संपर्क में आते हैं। इस क्रम में ढेर सारे परागकण व्यर्थ भी हो जाते हैं।

जल-परागण (Hydrophily hindi):

जल-परागण सामान्यतया जलीय (aquatic) पौधों में होता है, परंतु कुछ पौधों, जैसे कमल (Nelumbo nucifera) में कीट-परागण होता है। हाइड्रिला (Hydrilla) तथा वेलिसनेरिया (Vallisneria) में जल-परागण होता है।

वेलिसनेरिया में नर पौधे तथा मादा पौधे अलग-अलग होते हैं, अर्थात एकलिंगाश्रयी (dioecious) होते हैं। जब नर पुष्प परिपक्व हो जाते हैं तब वे पौधे से विच्छेदित होकर पानी पर तैरने लगते हैं।

स्त्री पौधे (female flowers) में वृंत (stalk) लंबाई में वृद्धि करके पुष्प को जल की सतह पर लाता है। नर पुष्प जैसे ही मादा पुष्प के संपर्क में आता है, परागकोषों से परागकण निकलकर वर्तिकाग्र से चिपक जाते हैं और इस प्रकार पर-परागण हो जाता है। परागण के पश्चात मादा पुष्पों के वृंत कुंडलित होकर फिर पानी में चले जाते हैं जहाँ बीज और फलों का निर्माण होता है।

कुछ जलीय पौधे, जैसे रेननकुलस रेपेन्स (Ranunculus repens) में वर्षा के जल की बूँद के साथ-साथ परागकण परागकोषों से विच्छेदित होकर वर्तिकाग्र को परागित करते हैं। सिरैटोफिल्लम (Ceratophyllum) में परागकण पानी की सतह के अंदर जाकर वर्तिकाग्र को परागित करते हैं।

पर-परागण के लाभ तथा हानियाँ (Advantages and disadvantages of cross-pollination in hindi):

पर-परागण के निम्नलिखित लाभ हैं।

(i) इस विधि में दो भिन्न वंशानुक्रम लक्षणों (hereditary characters) का मेल होता है। इससे उत्पन्न संतान अधिक स्वस्थ होती है।

(ii) पर परागण के माध्यम से पौधों की नई किस्में पैदा की जा सकती हैं।

(iii) पर-परागित पुष्पों से उत्पन्न बीज अधिक जीवनक्षम (viable) होते हैं।

पर-परागण से होनेवाली हानियाँ निम्नवत हैं।

(i) पर-परागण में अनिश्चितता बनी रहती है, क्योंकि पुष्प को बाह्य साधनों पर ही परागण के लिए निर्भर रहना पड़ता है।

(ii) परागकण बहुत बड़ी मात्रा में बनते हैं जिससे पौधे को ज्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है।

(iii) अनेक परागकण व्यर्थ चले जाते हैं।

(iv) पर-परागण द्वारा प्राप्त बीज मिश्रित गुणोंवाले होते हैं।

पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण (Pollen-pistil interaction in hindi):

प्राकृतिक परागण द्वारा यह सुनिश्चित नहीं हो पाता है कि वर्तिकाग्र पर उसी प्रजाति का पराग पहुँचा है। वर्तिकाग्र पर गिरनेवाले परागकण या तो उसी पादप के होते हैं या किसी अन्य पादप के। स्त्रीकेसर में यह क्षमता होती है कि वह सही और गलत प्रकार के परागकणों को पहचान ले तथा सही प्रकार के परागकणों को ही अंकुरित होने दें। यह पहचान सर्वप्रथम वर्तिकाग्र से प्रारंभ होती है।

यदि परागकण सही प्रकार का होता है तब वर्तिकाग्र उसे स्वीकार कर परागण पश्च घटना (post-pollination events) के लिए प्रोत्साहित करती है तथा परागनलिका को भ्रूणकोष (embryo sac) तक जाने की स्वीकृति देती है।यदि पराग गलत प्रकार का होता है तब स्त्रीकेसर पराग अंकुर को वर्तिकाग्र पर ही रोक देती है या वर्तिका (style) में पराग नलिका की वृद्धि को रोक देती है।

इस प्रकार परागकणों के वर्तिकाग्र पर गिरने के बाद या तो पराग स्वीकृत होता है या अस्वीकृत स्वीकृत होने के बाद परागकण वर्तिकाग्र पर अंकुरित होते हैं। एक स्त्रीकेसर द्वारा पराग के पहचानने की सक्षमता उसकी स्वीकृति या अस्वीकृति पर निर्भर करती है जो परागकणों तथा वर्तिकाग्र के बीच पारस्परिक क्रिया का परिणाम है। यह संवाद परागकणों तथा वर्तिकाग्र में पाए जानेवाले रासायनिक घटकों (chemical components) जिनमें मुख्यतः प्रोटीन होते हैं, के संकर्षण (interaction) द्वारा होता है।

स्त्रीकेसर संकर्षण का क्रम स्वीकृति के बाद परागकण अंकुरित होते हैं। परागनलिका वर्तिकाग्र से होती हुई भ्रूणकोष तक पहुँचती है जहाँ निषेचन की क्रिया संपन्न होती है। सहाय कोशिका (synergids) के बीजांडद्वारी हिस्से पर उपस्थित तंतुरूप समुच्चय (filiform apparatus) परागनलिका के प्रवेश को दिशा निर्देशित करती है। वर्तिकाग्र पर परागकणों के गिरने से लेकर बीजांड में परागनलिका के प्रविष्ट होने तक की सभी घटनाओं को पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण कहा जाता है।

कृत्रिम संकरीकरण (Artificial hybridization in hindi):

उन्नत फसलों को विकसित करने के लिए कृत्रिम संकरीकरण की विधि अपनाई जाती है। इस प्रकार के प्रयोगों में यह सुनिश्चित किया जाता है कि अपेक्षित परागकण (desired pollen grains) को ही वर्तिकाग्र तक पहुँचने दिया जाए। यह कार्य द्विलिंगी पुष्पों (bisexual flowers) में विपुंसन (emasculation) द्वारा संपन्न किया जाता है।

पराग के प्रस्फुटन से पहले पुष्प कलिका से परागकोष को चिमटी की मदद से निकाल लिया जाता है। विपुंसित पुष्पों को उपयुक्त आकार की थैली से ढँक दिया जाता है। इसके लिए सामान्यतया बटर पेपर (butter paper) का उपयोग किया जाता है। इस प्रक्रम को बैगिंग (bagging) कहा जाता है।

जब वस्त्रावृत (bagged) पुष्प का वर्तिकाग्र सुग्राह्यता (receptivity) को प्राप्त कर लेता है तब अपेक्षित परागकणों को संग्रहित कर उसे वर्तिकाग्र पर छिड़का जाता है। उस पुष्प को पुनः बटर पेपर से ढँक दिया जाता है ताकि विजातीय परागकण वर्तिकाग्र पर न पहुँच सकें । पुष्प को फल विकसित होने के लिए छोड़ दिया जाता है।

वैसे मादा जनक (female parent) जो एकलिंगीय पुष्प पैदा करते हैं उनमें विपुंसन की आवश्यकता नहीं पड़ती है। मादा पुष्पों को खिलने से पूर्व ढँक दिया जाता है तथा वर्तिकाग्र के सुग्राह्य होने के पश्चात अपेक्षित पराग का छिड़कावकर पुष्प को पुनः आवृत (rebag) कर दिया जाता है।

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