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जनन क्या है, जनन के प्रकार, मनुष्य जनन कैसे करते हैं, मानव जनन तंत्र (Janan kise kahate hain)

मानव जनन (Janan kise kahate hain-)

Janan kise kahate hain-“जनन वह प्रक्रम है जिसके द्वारा जीव अपनी ही जैसी अन्य उर्वर संतानों की उत्पत्ति करता है और इस प्रकार अपनी संख्या में वृद्धि कर, अपनी जाति के अस्तित्व को बराबर बनाए रखकर, उसे विलुप्त होने से बचाए रखता है।”

जनन से कुछ महत्त्वपूर्ण लाभ होते हैं जो निम्नलिखित हैं।

आबादी में वृद्धि (Increase in population) – जनन से जीवों की संख्या में वृद्धि होती है, जिससे जीवों की आबादी में वृद्धि होती है।

जातियों का अनुरक्षण (Maintenance of species) –

जनन द्वारा ही जीवों की एक पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को तैयार करती है एवं यह प्रक्रम प्रकृति में निरंतर चलता रहता है। इससे जीव तो मर जाता है, परंतु उसकी जाति सदैव कायम रहती है। अतः जीव-जातियाँ विलुप्त (extinct) होने से बच जाती हैं।

जीवों के लाभकारी गुणों की वंशागति (Inheritance of useful characters) –

जीव अपने जनकों के लाभकारी गुणों की युग्मकों (शुक्राणुओं और अंडाणुओं) द्वारा जनकों से प्राप्त कर अगली पीढ़ी की संतानों में स्थानांतरित करते हैं। इससे ये संतान अपने वातावरण से अधिक बेहतर तरीके से अनुकूलित होते हैं फलस्वरूप ये जीव बेहतर प्रकार से जीवन-यापन करते हैं।

मानव जननतंत्र (Human Reproductive System hindi)

मानव में जननतंत्र अन्य जंतुओं की अपेक्षा बहुत अधिक विकसित और जटिल है। मनुष्य एकलिंगी (unisexual) या एकलिंगायी या डायोसियस (dioecious) होते हैं, अर्थात नर और मादा जननतंत्र अलग-अलग व्यष्टियों (individuals) में होते हैं। दोनों के जननतंत्रों में लैंगिक अंग (sex organs) या जननद या जनन ग्रंथियाँ या गोनड (gonads) मौजूद होते हैं।

नर जननद को वृषण या टेस्टिस (testes) कहते हैं और मादा जननद को अंडाशय या ओवरी (ovary)। साथ ही दोनों (नर और मादा) में सहायक लैंगिक अंग ( accessory sex organs) और सहायक ग्रंथियाँ (accessory glands) भी मौजूद होती हैं, जो युग्मकों के परिपक्वन, पोषण और परिवहन में सहायता करते हैं।

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नर-जनन अंग (Male reproductive organs in hindi)

वृषण पुरुष का प्रमुख जनन अंग है, क्योंकि इसमें नर युग्मक (male gamete) शुक्राणु (sperm ) बनते हैं। प्रत्येक पुरुष में दो अंडाकार (5 cm × 2.5 cm × 3 cm) वृषण वृषणकोष ( scrotum) में उदरगुहा के बाहर दोनों जंघाओं के बीच अलग-अलग स्थित रहते हैं। यह वृषणकोष त्वचा का एक मोटा खोल होता है।

जन्म लेने के पहले वृषण उदरगुहा से वृषणकोष में एक संकीर्ण मार्ग के द्वारा उतर आते हैं एवं अपने साथ भ्रूणीय वृक्क का कुछ भाग, रुधिर वाहिनियाँ तथा तंत्रिकाओं के साथ वृषण रज्जु (spermatic cord) का निर्माण करता है।

वृषणकोष उदरगुहा के साथ इंगुइनल नाल (inguinal canal) द्वारा संबद्ध रहता है। अगर कभी किसी कारणवश आँत का कोई अंग इंगुइनल नाल से होते हुए वृषणकोष में आ जाता है तो इस अवस्था को इंगुइनल हर्निया (inguinal hernia) कहते हैं, जो शल्य चिकित्सा द्वारा ठीक किया जा सकता है। वृषणकोष का ताप शुक्राणुओं के निर्माण के लिए उपयुक्त है। इसका तापमान शरीर के तापमान (37°C) से 2°C-3°C कम रहता है।

प्रत्येक वृषण संयोजी ऊतक का बना एक आवरण से ढँका रहता है। इस आवरण को ट्यूनिका एल्बुजिनिया (tunica albuginea) कहते हैं। ट्यूनिका एल्बुजिनिया वृषण के अंदर कई सेप्टा बनाता है। इससे वृषण कई खंडों में बँट जाता है। प्रत्येक खंड में दो-तीन कुंडलित नलिकाएँ पाई जाती हैं। इन नलिकाओं को शुक्रजनन नलिकाएँ (seminiferous tubules) कहते हैं।

नलिकाएँ भ्रूणीय अघिच्छद (germinal or seminiferous epithelium) से आच्छादित रहते हैं। इसमें दो प्रकार के कोशिकाएँ होते हैं। पहले, शुक्राणुकोशिकाजन (spermatogonia) बनाती हैं जो नलिका के गुहा में पड़े रहते हैं। दूसरा, कोशिका को सहायक कोशिका (supporting cell) या सर्टोली की कोशिकाएँ (Sertoli cells) कहते हैं।

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ये कोशिकाएँ लंबी होती हैं एवं इनके सिरा नलिका के गुहा की ओर दिखाई पड़ता है। सर्टोली की के शुक्राणु कोशिकाजन को आकार एवं पोषण प्रदान करती है। इताली के ऊतकी वैज्ञानिक एनरिको सर्टोली (1842-1910) इन कोशिकाओं के अविष्कारक हैं। शुक्र-जनन नलिकाओं के बीच-बीच में एक विशेष प्रकार की कोशिकाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें अंतराली कोशिकाएँ (interstitial cells ) या लाइडिग की कोशिकाएँ (Leydig cells) कहते हैं।

इन कोशिकाओं का जर्मन शरीर रचनाविज्ञान के वैज्ञानिक लाइडिंग फ्रांज वॉन लाइडिंग ( Franz von Leydig, 1821–1908) ने खोज किया था। इन कोशिकाओं द्वारा नर हॉर्मोन एंड्रोजेन (androgen) स्रावित होता है। यह हॉर्मोन शुक्राणु जनन (spermatogenesis) का नियंत्रण करता है।

शुक्र-जनन नलिकाएँ(Janan kise kahate hain) अंदर की ओर छोटी-छोटी नलिकाओं जिसे ट्यूबुली रेक्टी (tubuli recti) द्वारा एक जाल में खुलती हैं जिसे रेटे टेस्टस ( rete testis ) कहते हैं। रेटे टेस्टिस से कम-से-कम 10-20 नलिकाएँ निकलती हैं जिन्हें शुक्र अपवाहिकाएँ या शुक्रनलिकाएँ (vasa efferentia) कहते हैं।

ट्यूबुली रेक्टी , रेटे टेस्टिस एवं शुक्र अपवाहिकाएँ को सम्मिलित रूप से अंतः वृषण-जनन नली तंत्र (intratesticular genital-duct system) कहलाता हैं। शुक्र अपवाहिकाएँ जुड़कर एक अत्यधिक कुंडलित नली का निर्माण करते हैं जिसे अधिवृषण (epididymis) कहते हैं।

अधिवृषण नली लगभग 6 मीटर लंबी कुंडलित नली है जो कसी हुई रूप में वृषण के भीतरी किनारे लगा रहती है एवं इसे अधिवृषण या एपिडिडाइमिस (epididymis) कहते हैं । यह घोड़े की नाल के आकार का होता है। इससे एक नलिका निकलती है। इसे वास डिफेरेंस या शुक्रवाहिनी ( vas deferens) कहते हैं। यह करीब 25 cm लंबी होती है।

शुक्रवाहिनी की दीवार मांसल एवं संकुचनशील (contractile) होती है। प्रत्येक ओर की शुक्रवाहनी वृषण के समानांतर आगे बढ़कर इंगुइनल नाल से उदरगुहा में पहुँचकर मूत्राशय के निकट अपनी ओर की मूत्रनली से एक फँदा बनाकर पुनः नीचे की ओर जाती है एवं शुक्राशय (seminal vesicle) की नलिका से मिलकर एक स्खलन नली (ejaculatory duct) का निर्माण करती है।

दोनों ओर की स्खलन नली पुरःस्थ ग्रंथि (prostate gland) में प्रवेश करके मूत्राशय से आनेवाली मूत्रमार्ग (urethra) में प्रवेश कर जाती है। मूत्रमार्ग आगे बढ़कर शिश्न (penis) के मध्य से गुजरता है एवं शिश्न के सिरे पर नर मूत्र-जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलता है। इस तरह अधिवृषण नली, शुक्रवाहिनी एवं मूत्रमार्ग होकर शुक्राणु एवं मूत्र बाहर निकलते हैं। ये सभी मिलकर उत्सर्जन जनन नलिकाओं (excretory genital ducts) का निर्माण करते हैं।

अतिरिक्त जनन ग्रंथियाँ (Accessory genital glands) – इसके अंतर्गत निम्नलिखित तीन ग्रंथियाँ हैं।

पुरःस्थ ग्रंथि या प्रोस्टेट ग्रंथि (Prostate gland hindi)

मूत्राशय के आधार तल पर स्थित एक गोलाकार, स्पंजी ग्रंथि है, जो नलिकाओं द्वारा मूत्रमार्ग के उसी भाग में खुलती है जो भाग पुरःस्थ ग्रंथि के बीच से होकर गुजरता है। यह ग्रंथि कम-से-कम 30-40 नलिका कोष्ठिकीय (tubulo-alveolar) प्रकार की ग्रंथियों के समूह हैं। पुरःस्थ ग्रंथि से पुरः स्थी द्रव (prostatic fluid) स्रावित होता है जो श्वेत, पतला, अम्लीय है एवं शुक्राणुओं को सक्रिय बनाता है।

किसी कारणवश वयस्क पुरुष अगर प्रोस्टेट ग्रंथि बड़ी हो जाती है तो मूत्रमार्ग में रुकावट आ जाती है, फलस्वरूप पेशाब करने में कष्ट होता है। कभी-कभी मूत्रमार्ग बंद भी हो जाता है। इस अवस्था में शल्य-क्रिया द्वारा प्रोस्टेट ग्रंथि को निकालकर हटा दिया जाता है।

शुक्राशय (Seminal vesicle hindi)

यह एक लंबी, मांसल थैली के आकार की संरचना है जो शुक्राणुओं को सक्रिय करनेवाले पदार्थों को स्रावित करता है। ये पदार्थ हैं साइट्रेट, फ्रुक्टोस, इनोसिटोल इत्यादि।

काऊपर या बुलवाउरेथ्राल ग्रंथि (Cowper’s gland or bulbourethral gland hindi)

काऊपर या बुलवाउरेथ्राल ग्रंथि का एक जोड़ी प्रोस्टेट ग्रंथि के नीचे स्थित है एवं मूत्रमार्ग में खुलती है। ये भी नलिका कोष्ठिकीय ग्रंथियाँ हैं। इसका स्राव क्षारीय द्रव है एवं मूत्र के अम्ल से शुक्राणुओं की रक्षा करता है।

शिश्न (penis) त्वचा से ढँका रहता है। त्वचा का जो भाग शिश्न के अगले भाग, अर्थात शिश्न मुंड (glans penis) को ढँकता है, उसे शिश्नाग्रहच्छेद या शिश्नमुंड छेद (prepuce) कहते हैं। शिश्न के अंदर का भाग अत्यंत संवहनीय और स्पंजी होता है। इसके भीतर दो पृष्ठीय कॉर्पोरा केवर्नोसी (corpora cavernosae) और एक अधरतलीय स्पंजी कॉर्पस स्पंजिओसम (corpus spongiosum) होते हैं। शिश्न का प्रयोग मादा में अंडवाहिनी के आधार पर शुक्राणुओं को जमा करने के लिए किया जाता है, ताकि अंडों के शरीर के अंदर निषेचन हो सके।

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शुक्राणु शुक्रजनन(Janan kise kahate hain)नलिकाओं में विकसित होता है। यह सूक्ष्म, अगुणित कोशिकाएँ (haploid cells) है एवं इसे नर-युग्मक कहा जाता है।

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स्पर्म क्या है (Semen in hindi )

मैथुन के समय शिश्न के शीर्ष भाग में स्थित मूत्र-जनन छिद्र से जो द्रव निकलता है, वह वीर्य (semen) है । पुरः स्थी द्रव, शुक्राणु द्रव एवं शुक्रीय द्रव मिलकर वीर्य बनाते हैं। वीर्य में उपस्थित शुक्राणु ( प्राय: 10% होते हैं) को छनकर अलग कर देने से जो द्रव बच जाता है, उसे शुक्रीय जीवद्रव्य या सेमिनल प्लैज्मा (seminal plasma) कहते हैं ।

नर-जनन अंगों के कार्य (Functions of male reproductive organs) —

(i) वृषण – वृषण के कार्य है – शुक्राणुओं का निर्माण और नर-हॉर्मोन की उत्पत्ति।

(ii) अधिवृषण – अधिवृषण शुक्राणुओं के प्रमुख संग्रह स्थान का कार्य करता है। इसके अलावा, अधिवृषण में शुक्राणुओं का परिपक्वन (maturation) भी होता है। शुक्राणु यहीं सक्रियता प्राप्त करते हैं। इस प्रकार, ये यहीं अपनी निषेचन क्षमता प्राप्त करते हैं ।

(iii) शुक्रवाहिका – शुक्रवाहिका अधिवृषण को शुक्राशय से जोड़ती है। ये शुक्राणुओं को आगे बढ़ाने का कार्य करती है। ।

(iv) शुक्राशय – इससे एक चिपचिपा पदार्थ स्रावित होता है।

(v) प्रोस्टेट या पुर:स्थ ग्रंथि – इससे एक प्रकार का द्रव स्रावित होता है, जिसे प्रोस्टेट या पुरःस्थ द्रव कहते हैं जिससे वीर्य में विशेष गंध (smell) होता है एवं यह द्रव शुक्राणुओं को सक्रिय बनाता है।

(vi) शिश्न – यह शुक्र को शरीर से बाहर निकालकर मादा की योनि के भीतर पहुँचाता है।

मादा-जनन अंग (Female reproductive organs)

मादा-जनन अंग में ये रचनाएँ पाई जाती हैं — दो अंडाशय (ovaries), दो अंडवाहिनी (oviducts), गर्भाशय ( uterus), एक योनि (vagina), बाह्य जननेंद्रिय (external genitalia), अतिरिक्त जनन ग्रंथियाँ (accessory genital glands) एवं स्तन ग्रंथियाँ (mammary glands)।

अंडाशय (Ovary) –

प्रत्येक मादा में एक जोड़ा अंडाशय होता है। उदरगुहा के निचले भाग में, श्रोणिगुहा (pelvic cavity) में, दोनों ओर, दाएँ और बाएँ एक-एक अंडाशय स्थित रहते हैं। प्रत्येक अंडाशय एक अंडाकार रचना है जो लगभग 3 cm लंबा, 1.5 cm चौड़ा और 1.0cm मोटा होता है। अंडाशय पेरिटोनियम झिल्ली, जिसे मेसोवारियम (mesovarium) कहते हैं, द्वारा उदर के पृष्ठीय दीवार से सटा रहता है। अंडाशय के भीतर अंडाणुओं का अंडजनन द्वारा निर्माण होता है।

प्रत्येक अंडाशय संयोजी ऊतक के बना एक परत ट्यूनिका एल्बुजिनिया से आच्छादित रहता है। इस परत के नीचे जनन-एपिथीलियम (germinal epithelium) का एक परत होता है। इसका कोशिका से अंडाणु (ova) विकसित होता है। अंडाशय के आंतरिक भाग तंतुओं एवं संयोजी ऊतक का बना होता है जिसे स्ट्रोमा (stroma) कहते हैं। जनन एपिथीलियम के कई कोशिकाएँ स्ट्रोमा में जाकर पुटकों (follicle) का निर्माण करता है।

इससे एक कोशिका बड़ी होकर अंडकोशिका (oocyte) बनाती है एवं फिर ग्रेनुलोसा कोशिकाओं से घिरकर प्राथमिक पुटक (primary follicle) का निर्माण करती है। पुटक कोशिकाएँ विभाजित होती हैं और दो स्तरों से अंडकोशिका को घेरकर द्वितीयक पुटक (secondary follicle) बनाती है। अब यह स्ट्रोमा के ऊपरी भाग में आता है। इसमें एक क्षेत्र बनता है जिसे एंट्रम (antrum) कहते हैं। इसमें एक द्रव रहता है जिसे पुटिका द्रव (liquor folliculi) कहते हैं।

एंट्रक तथा पुटिका द्रव के कारण डिबकोशिका एक ओर खिसक जाती है, लेकिन पुटक कोशिकाओं कोशिकाओं के इस समूह को डिस्कस प्रोलीजेरस (discus proligerus) कहते हैं। अंड (ovum) को घेरे एक जोना पेलुसिडा (zona pellucida) कहते हैं। इस परत के बाहर अरीय रूप से लंबी-लंबी पुटक कोशिकाएँ होती हैं| इसे कॅरोना रेडिएटा (corona radiata) कहते हैं। परिपक्व पुटक को ग्राफी पुटक (Graafian follicle) कहते हैं, जो अंडाशय की बाहरी सतह के निकट खिसक आता है।

अंड-निस्सरण के बाद पुटक से एक पीले रंग की रचना बनती है। पुटक कोशिकाएँ पीतिका कोशिकाओं (lutein cells) में परिवर्तित हो जाती हैं। इस प्रकार, अंडरहित ग्राफी पुटक, जमे रुधिर और पीतिका कोशिकाओं से निर्मित रचना कॉर्पस ल्यूटियम (corpus luteum) कहते हैं। यह एक अल्पकालिक (temporary) अंत: स्रावी ग्रंथि का काम करता है और प्रोजेस्टेरॉल एवं ऐस्ट्रोजेन नामक हॉर्मोन स्रावित करता है।

एक वयस्क स्त्री के दो अंडाशय में लगभग चार लाख पुटक विद्यमान होता है, लेकिन स्त्री के संपूर्ण जननकाल में अधिकांश पुटक नष्ट होकर स्ट्रोमा के ऊतक में मिल जाता है। इस अवस्था को पुटकीय अछिद्रता (follicular atresia) कहते हैं।

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अंडाशय से अंडाणुओं के बाहर निस्सरण की क्रिया को अंडोत्सर्ग (ovulation) कहते हैं। साधारणत: प्रत्येक मासिक चक्र (menstrual cycle) में एक अंडाणु का एकांतर अंडाशय (alternate ovaries) से अंडोत्सर्ग होता है। अंडोत्सर्ग प्रति 28 दिन पर (प्रतिमाह) लगभग 45-50 वर्ष की आयु तक होता रहता है। एक नारी अपने जनन-जीवन की अवधि (40-50 वर्ष) में करीब 450 अंडाणु का निर्माण करती है।

पुटकीय अछिद्रता के समय पुटक कोशिकाएँ एवं अंडकोशिकाएँ (oocytes) नष्ट हो जाने से भी, स्ट्रोमा से बना एवं पुटक के चारों ओर स्थित कुछ थिकल (thecal) कोशिकाएँ मिलकर अंतराली कोशिकाओं (interstitial cells) के निर्माण करते हैं। इनसे ऐंड्रोजेन (androgen) स्रावित होता है।

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अंडवाहिनी या फैलोपिअन नलिका (Fallopian tube)

प्रत्येक स्त्री में दो अंडवाहनी होती है जो अंडाशय के ऊपरी भाग से शुरू होकर गर्भाशय के ऊपरी भाग के दोनों बगल लगी रहती है। प्रत्येक नलिका का शीर्ष भाग उँगलियों के समान झालर बनाता है जिसे फिब्री (fimbriae ) कहते हैं।

अंडाणु जब अंडाशय से बाहर निकलता है तब फिंब्री द्वारा पकड़ लिया जाता है एवं अंडाणु अंडवाहिनी की गुहा में पहुँच जाती है। अंडवाहिनी 12 cm लंबी होती है एवं इसकी दीवार मांसल एवं संकुचनशील तथा भीतरी सतह पर सीलिया होती है, जो अंडाणु को आगे बढ़ने में सहायता देती है। अंडवाहिनी से अंडाणु गर्भाशय में पहुँचता है।

गर्भाशय (Uterus) –

यह थैली के समान एक पेशीय रचना है जो मूत्राशय एवं मलाशय के बीच श्रेणीगुहा में स्थित है। सामने से देखने से यह नाशपाती के आकार का दिखाई पड़ता है। यह साधारणत: 7.5 cm लंबा, 5 cm चौड़ा और 3.5 cm मोटा होता है। इसका ऊपरी भाग को मुख्य भाग या काय (body) तथा निचला भाग सँकरा (narrow) होता है जिसे ग्रीवा या सर्विक्स (cervix) कहते हैं।

गर्भाशय की भित्ति मोटी एवं पेशीय होती है। गर्भाशय की भित्ति के अंदर के स्तर को म्यूकोसा (mucosa) या एंडोमीट्रियम (endometrium) कहते हैं। सर्विक्स नीचे की ओर योनि (vagina) में खुलता है।

योनि (Vagina) –

यह एक 7-10 cm लंबी पेशीय नली है जिसके सामने मूत्राशय एवं पीछे मलाशय स्थित है। योनि में कोई ग्रंथि नहीं होती। यह बाहर एक छिद्र द्वारा खुलती है जिसे भग या वल्वा (vulva) कहते हैं। भग एक पतली झिल्ली, हायमेन (hymen) द्वारा ढँकी रहती है, लेकिन कभी भी अचानक इसमें चोट लगने से या ज्यादा शारीरिक परिश्रम के फलस्वरूप यह टूट जाता है। हायमेन के बाद एक छोटे स्थान को वेस्टिब्यूल कहते हैं। यह लेबिया लघु भगोष्ठ या माइनोरा (labia minora) द्वारा घिरा रहता है।

बाह्य जननेंद्रिय (external genitalia) या वल्वा के अंतर्गत है. — वृहद भगोष्ठ या लेबिया मेजोरा (labia majora) जो एक जोड़ा बालयुक्त त्वचीय वलन है, लेबिया माइनोरा (labia minora) जो एक जोड़ा बालहीन वलन लेबिया मेजोरा के भीतर स्थित होता है एवं क्लाइटोरिस (clitoris) जो एक उच्छायी (erectile) अत्यंत संवेदनशील रचना है। इसमें कोई नली या छिद्र नहीं होता है। इसके अलावा कुछ ग्रंथियाँ जो वेस्टिब्यूल में खुलती हैं। क्लाइटोरिस को नर के शिश्न के समजात (homologous) अंग माना जाता है।

साधारणतः स्तन-ग्रंथि (mammary gland) 15-20 संयुक्त नलिका कोष्ठिकीय प्रकार के ग्रंथियों द्वारा बनी 15-20 पालिकाओं (lobules) के समूह हैं। प्रत्येक पालिका एक-दूसरे से घनाकार संयुक्त ऊतक एवं वसा ऊतक द्वारा अलग रहता है। प्रत्येक से एक लैक्टिफेरेंस नलिका (lactiferous ducts) निकलकर एक छिद्र (0.5mm) द्वारा चूचुक (nipple) के शीर्षभाग पर खुलता है। स्तन शिशु के पोषण के लिए दूध स्रावित करता है।

मादा का द्वितीयक जनन अंग हैं- अंडवाहिनी, गर्भाशय, योनि, क्लाइटोरिस, अतिरिक्त जनन ग्रंथियाँ एवं स्तनग्रंथि ।

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मादा-जनन अंगों के कार्य (Functions of female reproductive organs ) —

(i) अंडजनन (अंडों को निर्माण करना)

(ii) मैथुन के समय योनि द्वारा शुक्राणुओं को ग्रहण करना

(iii) निषेचन के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करना

(iv) फिब्री द्वारा अंडाणुओं को पकड़ना और गर्भाशय में पहुँचाना

(v) गर्भाशय-निषेचित अंडाणुओं को भ्रूण-परिवर्द्धन हेतु उचित स्थान प्रदान करना

(vi) शिशु के विकास के समय पोषण करना

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