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पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन, पुंकेसर, स्त्रीकेसर, लघुबीजाणुजनन, संरचना, भ्रूणकोष की संरचना

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पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Flowering Plants):

सभी जीवों में जनन (reproduction) होता है। यह संतति बढ़ाने की एक विधि है। पौधों में नया जीव एक अकेले जीव से अथवा दो जीवों से बनता है। यह इस पर निर्भर करता है कि जीव में किस प्रकार का जनन हो रहा है। पुष्पी पौधों में फूल तथा इसके अंग लैंगिक जनन में भाग लेते हैं।

मुख्य रूप से पुष्प के चार भाग होते हैं

बाह्यदलपुंज (calyx), दलपुंज (corolla), पुमंग (androecium) तथा जायांग (gynoecium)।

फूल के मुख्य कार्य हैं—

(i) पराग तथा अंडों का उत्पादन

(ii) परागण

(iii) निषेचन

(iv) बीज तथा फलों का विकास तथा

(v) बीजों तथा फलों का प्रकीर्णन। आवृतबीजी पौधों में जीवन इतिहास की प्रमुख क्रियाएँ पुमंग और जायांग तक ही सीमित रहती हैं।

निवेचन-पूर्व–संरचनाएँ एवं घटनाएँ (Pre-fertilization : structures and events):

पादपों में वर्धी वृद्धि (vegetative growth) के बाद पुष्प विकसित होने का क्रम प्रारंभ होता है। पुष्प विकसित होने से पूर्व अनेक हॉर्मोनल तथा संरचनात्मक परिवर्तनों (hormonal and structural changes) की शुरुआत होने लगती है। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप पुष्पीय आद्यक (floral primordium) के मध्य विभेदन एवं अग्रिम विकास प्रारंभ होते हैं।

पादपों में पुष्पक्रम (inflorescence) की रचना होती है जो पुष्पी कलिकाएँ (floral buds) और बाद में पूर्ण पुष्प को धारण करती हैं। पुष्प में दलपुंज से ढँका चक्र पुमंग (androecium) कहलाता है। यह नर-जननांग (male reproductive organ) है। फूल के केंद्र में मादा-जननांग (female reproductive organ) होता है। इसे जायांग अथवा स्त्रीकेसर (gynoecium) कहते हैं।

पुंकेसर (stamens):

पुमंग फूल की नर जनन-भ्रम (male reproductive whorl) होता है और पुंकेसरों (stamens) से मिलकर बनता है। प्रत्येक पुंकेसर तीन भागों से मिलकर बना होता हैपुंतंतु (filament), योजी (connective) तथा परागकोष (anther) । पुंतंतु एक पतला-सा डंठल होता है जिसके अंतिम सिरे पर एक संरचना होती है जिसे परागकोष कहते हैं। तंतु का दूसरा छोर पुष्प के पुष्पासन या पुष्पदल से जुड़ा होता है। पुंकेसरों की संख्या तथा उनकी लंबाई अलग-अलग प्रजातियों के पुष्पों में भिन्न होती है।

एक प्रारूपिक आवृतबीजी परागकोष दो पालियों (lobes) का बना होता है। प्रत्येक पाली के अंदर दो कोष्ठ होते हैं, अर्थात परागकोष द्विकोष्ठी (dithecous) होते हैं। प्रायः एक अनुलंब खाँच (longitudinal groove) कोष्ठ को अलग करते हुए लंबवत गुजरता है। परागकोष के अनुप्रस्थ काट में निम्नलिखित संरचनाएँ दिखाई देती हैं।

परागकोष एक चतुष्कोणीय (tetragonal) संरचना होती है जिसके चार कोनों पर लघु बीजाणुधानी (microsporangia) होती हैं जो प्रत्येक पाली में दो होती हैं। इस प्रकार प्रत्येक परागकोष में कुल मिलाकर चार कोष्ठक होते हैं। लघुबीजाणुधानी विकसित होकर परागपुटी (pollen sacs) बन जाती हैं। प्रत्येक परागपुट परागकण भरे होते हैं। परागकण बहुत अधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं। परागकोष की दोनों पालियाँ एक मध्य शिरा (mid rib) से जुड़ी रहती हैं जिसे योजी (connective) कहते हैं।

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लघुबीजाणुजनन (Microsporogenesis):

बीजाणुजननकोशिकाएँ जब लघुबीजाणु मातृकोशिकाओं (microspore mother cells) का काम करने लगती है तब उनमें अर्धसूत्री विभाजन (meiosis) होता है जिसके फलस्वरूप चार अगुणित (haploid) स्पोर्स बनते हैं। इन्हें माइक्रोस्पोर्स (microspores) कहते हैं। ये चारों स्पोर्स चतुष्कों (tetrads) में व्यवस्थित रहते हैं।

पराग मातृकोशिका (pollen mother cells) या लघुबीजाणु मातृकोशिका (microspore mother cells) द्विगुणित होती हैं, अर्थात इनके केंद्रकों में 2x संख्यावाले गुणसूत्र (chromosome) रहते हैं। प्रत्येक मातृकोशिका में अर्धसूत्री विभाजन होता है। इस तरह से बने चारों केंद्रकों में क्रोमोसोम की संख्या मातृकोशिका की आधी (x) या अगुणित (haploid) रह जाती है।

पराग मातृकोशिका से अर्धसूत्री विभाजन द्वारा लघुबीजाणु के निर्माण की प्रक्रिया को लघुबाजीणुजनन (microsporogenesis) कहते हैं।

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परागकोष के परिपक्व तथा स्फुरित ( dehydrate) होने के बाद लघुबीजाणु परागकोषों के रूप में विकसित हो जाते हैं। प्रत्येक लघुबीजाणुधानी के अंदर कई हजार लघुबीजाणु और परागकण निर्मित होते हैं। ये परागकण परागकोष के स्फुटन (dehiscence) के साथ मुक्त होते हैं।

लघुबीजाणुधानी की संरचना (Structure of microsporangium):

एक प्ररूपी (typical) लघु बीजाणुधानी प्रारंभ में गोलाई में प्रकट होती है जो बाद में चलकर चतुष्कोणीय हो जाती है। यह सामान्यतः चार भित्तियों से आवृत होती हैं :

(i) बाह्य त्वचा (epidermis)

(ii) अंतस्थीसियम (endothecium)

(iii) मध्य परतें (middle layers)

(iv) टैपीटम (tapetum)

बाह्य त्वचा (epidermis) के नीचेवाली परत अंतस्थीसियम कहलाती है। परिपक्व होने पर इसकी भित्तियाँ मोटी हो जाती हैं। अंतस्थीसियम कोशिकाओं में परागकोष के परिपक्व होकर फटनेवाले स्थानों पर कोशिकाभित्ति पतली रह जाती है। इस स्थान को स्टोमियम (stomium) कहते हैं। अंतस्थीसियम परागकोष के स्फुटन में मदद करती हैं।

मध्य परतें (middle layers) प्रायः शीघ्र नष्ट हो जाती हैं और वृद्धि कर रहे लघुबीजाणुओं (microspores) के पोषण में सहायक सिद्ध होते हैं। भित्तीय कोशिकाओं की सबसे भीतरी परत टैपीटम (tapetum) कहलाती है। टैपीटम की कोशिकाओं में सघन जीवद्रव्य (dense cytoplasm) होता है और सामान्यतः ‘नमें एक दो या केंद्रक होते हैं। टैपीटम कोशिकाएँ द्विकेंद्रकीय या बहुकेंद्रकीय तब बनती है जब सामान्य कोशिका विभाजन के दौरान केंद्रक के विभाजन के बाद कोशिकाभित्ति नहीं बनती। इस प्रकार टैपीटल कोशिकाएँ द्विकेंद्रकी या बहुकेंद्रकीय बन जाती हैं।

जब एक परागकोष अपरिपक्व (immature) होता है तब बीजाणुजन कोशिकाएँ (sporogenous cells) लघुबीजाणुधानी के केंद्र में अवस्थित होती हैं। बीजाणुजन कोशिकाएँ स्वयं भी विभाजित होना शुरू हो जाती हैं।

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लघुबीजाणु और परागकण (Microspore and pollen grain):

लघुबीजाणु (microspore) नर युग्मकोद्भिद (male gametophyte) की प्रथम कोशिका है। जब लघुबीजाणु के चारों ओर भित्ति बन जाती है तो उसे परागकण कहते हैं। अलग-अलग प्रजातियों के परागकण विन्यास- -आकार, रंग, रूप एवं बनावट में भिन्न-भिन्न दिखाई पड़ते हैं।

प्रत्येक लघुबीजाणु बहुत छोटा, अर्थात धूल के कण की तरह दिखाई देता है। यह प्रायः अंडाकार (oval) होता है। इनका व्यास लगभग 25-50 माइक्रोमीटर होता है। प्रत्येक परागकण में दो भित्तियाँ होती हैं- बाहर वाली भित्ति को बाह्यचोल (exine) तथा अंदर वाली भित्ति को अंतश्चोल (intine) कहा जाता है। बाह्यचोल स्पोरोपॉलेनिन (sporopollenin) नामक पदार्थ का बना होता है।

स्पोरोपॉलेनिन रासायनिक तथा जैविक निम्नीकृत प्रतिरोधक होता है। यह सर्वाधिक ज्ञात प्रतिरोधक कार्बनिक सामग्री है। स्पोरोपॉलेनिन उच्चताप (high temperature) तथा सुदृढ़ अम्लों ( strong acids) एवं क्षारों (alkalies) के सम्मुख टिक सकती है। कोई भी एंजाइम स्पोरोपालेनिन को निम्नीकृत नहीं कर सकता। परागकण जीवाश्मों (fossils) की तरह बहुत अच्छी तरह संरक्षित (preserved) होते हैं, क्योंकि परागकण भित्ति स्पोरोपॉलेनिन की बनी होती है। अंतश्चोल पेक्टोसेल्युलोज (pectocellulose) का बना होता है।

अनेक कीट-परागित (insect-pollinated) फूलों में पॉलेनकिट (pollenkitt) का आवरण पाया जाता है। विभिन्न जातियों के परागकणों के आमाप (size), आकार (form) और बाह्य चोल के अलंकरण (ornamentation) में अत्यंत भिन्नता पाई जाती है। इस भिन्नता को वर्गीकीय महत्त्व (taxonomic value) का माना गया है। परागाणुविज्ञान ( palynology) के अंतर्गत पराग तथा स्पोर्स का अध्ययन किया जाता है।

लघुयुग्मकजनन (Microgametogenesis ):

परागण से पूर्ण विकसित नर युग्मकोद्भिद बनने तक की सभी क्रियाओं को मिलाकर लघुयुग्मकजनन (microgametogenesis) कहते हैं। लघुबीजाणु या परागकण का केंद्रक या तो परागकोष में ही या फिर परागकण से वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचने के बाद विभाजित होने लगता है। परागकण के केंद्रक में सूत्री विभाजन (mitotic division) होता है।

इस विभाजन के फलस्वरूप दो असमान कोशिकाएँ बनती हैं। बड़ी कोशिका को कायिक कोशिका (vegetative cell) एवं छोटी कोशिका को जनन कोशिका (generative cell) कहते हैं। जननकोशिका कायिक कोशिका के जीव द्रव्य में तैरती रहती है। यह तर्क आकृति (spindle-shaped), घने जीवद्रव्य और एक केंद्रकवाला होता है।

कायिक (वर्धी) कोशिका (vegetative nucleus) पुनः विभाजित नहीं होती, परंतु जनन कोशिका (generative cell) या तो परागण से पूर्व या फिर पराग नलिका (pollen tube) में विभाजित होती है। जब परागकण के अंदर केवल कायिक कोशिका और जनन कोशिका होती हैं— इस प्रकार के परागकणों को द्विकोशिकीय (two-celled) कहते हैं।

60 प्रतिशत से अधिक आवृतबीजी पादपों के परागकण द्विकोशिकीय अवस्था में झड़ते या संगलित होते हैं। जब परागकण में जेनेरेटिव केंद्रक के विभाजन के बाद दो नर युग्मक (male gamete) बनते हैं तब इस प्रकार के परागकण को तीन कोशिकीय (three-celled) कहते हैं।

परागकण-जनित ऐलर्जी (Allergy caused by pollen grains):

पौधों की अनेक प्रजातियों के परागकण कुछ लोगों में गंभीर ऐलर्जी (severe allergies) तथा श्वसनीवेदना (bronchial afflictions) पैदा करते हैं। घासों में दूबघास (Cynodon dactylon), डाइकैंथियम एनुलेटम (Dichanthium annulatum), खर-पतवार में रैगवीड (Ambrosia) तथा पार्थेनियम (Parthenium) ऐलर्जी पैदा करते हैं।

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वृक्षों में देवदार (Cedrus deodara), यूकैलिप्टस (Eucalyptus) आदि के परागकण प्रमुख ऐलर्जी कारक हैं। परागकण नाक द्वारा प्रवेश कर श्वसन मार्ग (respiratory tract) की म्यूकस झिल्ली पर जमा हो जाते हैं। ये दमा (asthma), श्वसनी शोथ (bronchitis) उत्पन्न करते हैं। भारतवर्ष में पार्थेनियम (गाजर घास, carrot grass) अमेरिका से आयातित गेहूँ के साथ आया। यह स्पीशीज भारतवर्ष में इतनी तेजी से फैली कि इसको हटाना एक गंभीर चुनौती बन चुका है।

परागकण आहार (Pollen products food):

परागकण पोषक तत्त्वों (nutrients) से भरपूर होते हैं। इसी कारण स्वास्थ्यवर्धक खाद्य सामग्री के रूप में पराकगणों का व्यवसाय हो रहा है। आहार संपूरको (food supplements) के रूप में पराग टैबलेट (pollen tablets) का उत्पादन किया जा रहा है।

परागकणों में प्रोटीन, मिनेरल्स (minerals) तथा विटामिन (विशेषकर विटामिन B) की भरपूर मात्रा होती है। परागकणों को टैबलेट तथा सिरप के रूप में मनुष्य घरेलू जानवरों के उपयोग के लिए बाजार में उपलब्ध हैं। पराग खिलाड़ियों तथा धावक घोड़ों (race horses) की कार्यदक्षता में वृद्धि करते हैं।

परागकणों की जीवन-क्षमता तथा भंडारण (Viability and storage of pollen grains):

परागकण पुंकेसरों के फटने के बाद बाहर निकल आते हैं। वे हवा, कीट, पानी या अन्य माध्यमों से फूल के वर्तिकाग्र (stigma) पर पहुँचते हैं। पौधों में परागकणों की जीवन-क्षमता मिनटों से लेकर महीनों तक बनी रहती है। “पराग जीवन-क्षमता परागकणों की वह क्षमता है जिसके द्वारा वह नर युग्मकों को भ्रूणकोष तक पहुँचाती है।” (Pollen viability is the capability of the pollen to develop and survive independently for delivering male gametes to the embryo sac.)

कुछ पौधों, जैसे गेहूँ, धान, मोथा आदि में परागकण अल्पजीवी (short-lived) होते हैं। गेहूँ, बाजरा आदि के परागकण अपनी जीवन-क्षमता 30 मिनट के अंदर खो देते हैं। सूर्यमुखी कुल के पौधों के परागकण अपनी जीवन-क्षमता 3 घंटे के अंदर खो देते हैं।

कुछ कुलों, जैसे सोलेनेसी, रुटेसी, ब्रैसीकेसी आदि के पौधों के परागकणों की जीवन-क्षमता 1-3 महीने तक होती है। कुछ पौधों के परागकण दीर्घजीवी होते हैं। ये 6 महीने से अधिक समय तक अपनी जीवन क्षमता बनाए रखते हैं।

परागकणों को द्रव नाइट्रोजन (जिसका तापमान – 196°C होता है) में भंडारण किया जाता है। इस प्रकार भंडारित परागकणों का प्रयोग फसल प्रजनन (crop breeding) में किया जाता है। कई देशों में फसली तथा जंगली पौधों के परागकणों का बैंक, परागबैंक (pollen bank) बनाए गए.

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स्त्रीकेसर (Pistil):

जायांग (gynoecium) पुष्प का मादा-जननांग होता है। इसमें नीचे का फूला हुआ भाग अंडाशय (ovary) कहलाता है। इससे जुड़ी हुई एक पतली नलिकाकार रचना होती है जिसे वर्तिका (style) कहते हैं। वर्तिका के ऊपर घुंडी जैसी एक रचना होती है जिसे वर्तिकाग्र (stigma) कहा जाता है। बहुत से अंडप (carpel) मिलकर जायांग (gynoecium) बनाते हैं।

जायांग जब मात्र एक स्त्रीकेसर से बना होता है तब उसे एकांडपी (monocarpellary) तथा जब एक से अधिक स्त्रीकेसर से बना होता है उसे बहुअंडपी (multicarpellary) कहते हैं। जब जायांग में एक से अधिक अंडप होते हैं, तब वे दो प्रकार के हो सकते हैं—

(क) युक्तांडपी (Syncarpous) —

इस प्रकार के जायांग में स्त्रीकेसर एक-दूसरे से जुड़े (fused) रहते हैं। जैसे गुड़हल, सरसों, पॉपी (Papaver) |

(ख) वियुक्तांडपी (Apocarpous) —

इस प्रकार के जायांग में स्त्रीकेसर स्वतंत्र होते हैं। जैसे चंपा (Michelia), मैग्नोलिया (Magnolia)। अंडाशय के अंदर एक गर्भाशयी गुहा (ovarian cavity) होती है। इस कोष्ठक में एक या अनेक बीजांड (ovules) होते हैं।

गर्भाशयी गुहा के अंदर की ओर अपरा (placenta) अवस्थित होता है। अपरा या प्लैसेण्टा से उत्पन्न होनेवाली दीर्घबीजाणुधानी (megasporangium) को बीजांड कहते हैं। अंडाशय में एक बीजांड हो सकता है, जैसे सूर्यमुखी या अनेक बीजांड हो सकते हैं, जैसे पपीता, आर्किड, तरबूज आदि ।

बीजांड या गुरुबीजाणुधानी (Ovule, or megasporangium):

बीजांड की संरचना के अध्ययन के लिए अनुदैर्घ्य काट (longitudinal section) काटते हैं। बीजांड मुख्यतया अंडाकार होते हैं। बीजांडकाय (nucellus) बीजांड का मुख्य भाग है और पैरेनकाइमेटस ऊतकों (parenchymatous tissues) का बना होता है। बीजांडकाय की कोशिकाओं में प्रचुरता से आरक्षित आहार सामग्री (reserve food material) होती है। बीजांडकाय दो या एक आवरण (integument) से ढँका होता है।

कुछ बीजांडों में इसका अभाव भी होता है। आवरणों से बीजांड पूर्ण रूप से ढँका नहीं रहता, अपितु शिखाग्र की तरफ छिद्र के जैसा भाग खुला रहता है। इसे बीजांडद्वार (micropyle) कहते हैं। इसके विपरीत, बीजांड का वह भाग जहाँ से आवरण निकलते हैं, निभाग (chalaza) कहलाता है। बीजांडद्वार के ठीक पास भ्रूणकोष (embryo sac) अवस्थित होता है।

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एक बीजांड में सामान्यतः एक अकेला भ्रूणकोष होता है जो अर्धसूत्री विभाजन द्वारा बना होता है। बीजांड की काय (body) का वह स्थान जहाँ पर बीजांड-वृंत (funicle) जुड़ा रहता है, नाभिका (hilum) कहलाता है। यह नाभिका बीजांड एवं बीजांडवृंत के संधि बिंदु का प्रतिनिधित्व करती है। बगल के चित्र में प्रतीप (anatropous) प्रकार के बीजांड को दर्शाया गया है। इसमें बीजांड उलटे होते हैं।

गुरुबीजाणुजनन (Megasporogenesis)

गुरुबीजाणु मातृकोशिका (megaspore mother cell) से गुरुबीजाणुओं (megaspores) के बनने की क्रिया को गुरुबीजाणुजनन (megasporogenesis) कहते हैं।

सबसे पहले अधस्त्वचा की कोशिका (hypodermal cell) से प्रप्रसू आरंभक (archesporial initial ) का निर्माण होता है। इस आरंभक से तो सीधे गुरुबीजाणुजनन कोशिका (megaspore mother cell) बनती है या इसमें परिनतिक विभाजन (periclinal division) के फलस्वरूप कोशिकाएँ बनती हैं। इनमें से बाहरी, प्राथमिक भित्तीय कोशिका (primary parietal cell) होती है एवं अंदर की कोशिका को प्राथमिक बीजाणु जनन कोशिका (primary sporogenous cell) कहते हैं।

यह कोशिका गुरुबीजाणुजनन कोशिका (megaspore mother cell) के रूप में काम करती है। गुरुबीजाणु मातृकोशिका एक बड़ी कोशिका होती है जिसमें सघन जीवद्रव्य (dense cytoplasm) तथा एक सुस्पष्ट केंद्रक (prominent nucleus) होता है। गुरुबीजाणु मातृकोशिका में अर्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप चार गुरुबीजाणु (megaspores) बनते हैं।

गुरुयुग्मकजनन (Megagametogenesis)

गुरुबीजाणु (megaspore) से पूर्ण भ्रूणकोष (embryo sac) बनने तक की सभी क्रियाओं को मिलाकर गुरुयुग्मकजनन (megagametogenesis) कहते हैं।

अधिकांश पुष्पी पादपों में गुरुबीजाणुओं में से एक कार्यशील (functional) होता है जबकि अन्य तीन अपविकसित (degenerate) हो जाते हैं। केवल कार्यशील गुरुबीजाणु स्त्री (मादा) युग्मकोद्भिद (भ्रूणकोष) के रूप में विकसित होता है। एक अकेले गुरुबीजाणु से भ्रूण बनने की विधि को एक-बीजाणुज (monosporic) विकास कहा जाता है। इस प्रकार के भ्रूणकोष विकास को पॉलीगोनम टाइप (Polygonum type) भी कहा जाता है।

मादा युग्मकोद्भिद की गुणसूत्रता (ploidy) निम्नवत होगी।

  • बीजांडकाय (Nucellus) – द्विगुणित (diploid)
  • गुरुबीजाणु मातृकोशिका (Megaspore mother cell) – द्विगुणित ( diploid)
  • क्रियाशील गुरुबीजाणु (Functional megaspore) — अगुणित ( haploid)
  • मादा युग्मकोद्भिद (Female gametophyte) — अगुणित (haploid)

क्रियात्मक गुरुबीजाणु का केंद्रक सूत्री –

विभाजन से दो संतति केंद्रक (daughter nuclei) बनाता है जो गुरुबीजाणु के दो सम्मुख ध्रुव (poles) पर चले जाते हैं। ये दोनों केंद्रक बड़ी रिक्तिका (vacuole) द्वारा अलग होकर विपरीत ध्रुवों पर पहुँच जाते हैं और 2-न्युक्लिएट (2-nucleate) भ्रूणकोष की रचना करते हैं। दो अन्य क्रमिक समसूत्री केंद्रकीय विभाजन (sequential mitotic nuclear divisions) के परिणामस्वरूप 4-न्युक्लिएट (4-nucleate) और उसके बाद 8 – न्यूक्लिएट (8-nucleate) भ्रूणकोष की संरचना करते हैं।

इनमें से चार माइक्रोपाइलर छोर पर तथा चार चैलेजल छोर पर रहते हैं। माइक्रोपाइलर छोर के चार केंद्रकों में से तीन अंड समुच्चय ( egg apparatus) बनाते हैं एवं चौथा नीचे की ओर खिसककर ध्रुवीय केंद्रक (polar nuclei) बनाता है। चैलेजल छोर (chalazal end) की तरफ तीन केंद्रक प्रतिव्यासांत कोशिकाएँ (antipodal cells) बनाते हैं तथा चौथा खिसककर दूसरा ध्रुवीय केंद्रक (polar nucleus) बनाता है।

भ्रूणकोष की संरचना (Structure of embryo sac):

सामान्यतया एक बीजांड में एक भ्रूणकोष होता है। पूर्णरूप से विकसित भ्रूणकोष में निम्नलिखित संरचनाएँ विद्यमान होती हैं।

अंड समुच्चय (Egg apparatus ) —

यह बीजांड द्वार की ओर स्थित तीन कोशिकाओं का समूह है। इसमें बीच में अंड कोशिका (egg) होती है तथा उसके दोनों ओर एक-एक सहायक कोशिका (synergid) पाई जाती है। अंड कोशिका में नीचे की ओर केंद्रक होता है और ऊपर की ओर रिक्तियाँ होती हैं। सहाय कोशिका में अँगुलियों की तरह की रचनाएँ होती हैं उसे तंतुरूप समुच्चय (filiform apparatus) कहा जाता है। सहायक कोशिका में केंद्रक ऊपर की ओर तथा रिक्तिका नीचे की ओर होती है। एक भ्रूणकोष में केवल एक अंड होता है।

सेंट्रल कोशिका (Central cell) —

अंडसमुच्चय के नीचे के भाग को केंद्रीय कोशिका कहते हैं। इसमें दो ध्रुवीय केंद्रक (polar nuclei) भ्रूणकोष के मध्य में होते हैं। ये निषेचन (fertilization) से पूर्व संगलित होकर एक द्विगुणित (diploid) द्वितीयक केंद्रक (secondary nucleus) बनाते हैं। सेंट्रल कोशिका में एक बड़ी रिक्तिका होती है तथा कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) सेंट्रल कोशिका के किनारों की ओर ज्यादा होता है।

प्रतिव्यासांत कोशिकाएँ (Antipodal cells) —

भ्रूणकोष के चैलेजल छोर की ओर तीन कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें प्रतिव्यासांत कोशिकाएँ कहते हैं। ये निषेचन से पहले या तुरंत बाद नष्ट हो जाती हैं। प्रतिव्यासांत कोशिकाओं की संख्या भी अलग-अलग पौधों में भित्र हो सकती है

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