द्विसंकर क्रॉस (Dihybrid cross) —
एकसंकर क्रॉस के बाद मेंडल ने अपने प्रयोगों में दो विपरीत जोड़ों के लक्षणों की वंशागति (inheritance) का अध्ययन किया। इसे द्विसंकर क्रॉस (dihybrid cross) कहते हैं।
एक संकर एवं द्विसंकर क्रॉसों में जीनी संरचना के अनुसार दो प्रकार के पौधे देखे गए। कुछ पौधों में किसी भी जीन के दोनों ऐलील समान थे, जैसे TT, tt, YY, RR में। ऐसे पौधों को समयुग्मजी (homozygous) कहते हैं। इसके विपरीत जिन पौधों में किसी जीन के भिन्न-भिन्न ऐलील थे, उन्हें विषमयुग्मजी (heterozygous) कहते हैं, जैसे Tt, Yy, Rr आदि।
द्विसंकर क्रॉस के बाद मेंडल ने कई प्रयोग लक्षण बढ़ाकर किए तथा उन्हें सबमें समान रूप से सफलता मिली। द्विसंकर एवं बहुसंकर क्रॉस के आधार पर मेडल ने स्वतंत्र संकलन का नियम प्रतिपादित किया।
स्वतंत्र संकलन का नियम (Law of independent assortment) —
द्विसंकर एवं बहुसंकर क्रॉसों में जहाँ दो या दो से अधिक युग्मविकल्पी लक्षणों (alleles) के जोड़ों की वंशागति का अध्ययन किया जाता है वहाँ उन युग्मविकल्पी लक्षणों के जोड़ों का स्वतंत्र अपव्यूहन (assortment) होता है या एक युग्मविकल्पी लक्षण के जोड़ों का अपव्यूहन दूसरे से स्वतंत्र होता है। (In dihybrid and polyhybrid crosses where the inheritance of two or more pairs of allelomorphic characters is studied, the inheritance of one pair of allelomorphic characters is independent of the others.)
वंशागति के क्रोमोसोम सिद्धांत (Chromosomal theory of inheritance)

जैसा कि शुरू में बताया गया है कि मेंडल के खोजों के प्रकाशित होने के 34 वर्ष बाद ही इसे मान्यता मिल पाई। इस समय तक अच्छे माइक्रोस्कोप की खोज हो चुकी थी एवं वैज्ञानिकों ने कोशिका विभाजन के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त कर ली थी। यह पता लग गया था कि कोशिका के मध्य में एक केंद्रक रहता है जिसके अंदर क्रोमेटिन के धागे रहते हैं।
केंद्रक विभाजन के समय ये क्रोमोसोम के रूप में परिलक्षित होते हैं। कोशिका विभाजन के दौरान क्रोमोसोम विभाजित होकर दो क्रोमेटिड्स (chromatids) बनाते हैं। 1902 तक यह ज्ञात हो चुका था कि अर्धसूत्री (meiotic) कोशिका विभाजन के पहले केंद्रक के अंदर अवस्थित क्रोमोसोम की संख्या विभाजन के बाद आधी हो जाती है।
जब मेंडल ने खोज किया था, तब जीववैज्ञानिकों ने मेंडल के फैक्टर (factor) या कारक (जिसे बाद में जीन के रूप में माना गया) की परिकल्पना को नहीं माना, क्योंकि मेंडल इसके पक्ष में कोई भौतिक प्रमाण (physical proof) नहीं दे पाए। इसके अतिरिक्त मेंडल के जैविक क्रिया से संबंधित खोज के लिए गणितीय आधार भी उस समय अन्य वैज्ञानिक को स्वीकार नहीं था। मेंडल यह भी नहीं बता पाए कि आनुवंशिक गुणों के वाहक फैक्टर (जीन) किन पदार्थों से बने होते हैं।
क्रोमोसोम के बारे में जानकारी होने के बाद वाल्टर सटन (Walter Sutton) एवं थियोडोर बोवेरी (Theodor Boveri) ने सिद्ध किया कि क्रोमोसोम का व्यवहार जीन (gene) जैसा ही होता है।
मेंडल के नियमों को सटन एवं बोवेरी ने क्रोमोसोम की गतिविधि से समझाया । जीन के समान क्रोमोसोम भी युग्म के रूप में (pair) रहते हैं। एक जीन के दोनों ऐलील (alleles) समजात गुणसूत्रों (homologous chromosomes) के समजात स्थान पर अवस्थित रहते हैं।
पिछली कक्षा में आपने पढ़ा है कि अर्धसूत्री विभाजन के ऐनाफेज I में समजात क्रोमोसोम के सेंट्रोमियर एक-दूसरे से अलग होने लगते हैं और अपने साथ दो क्रोमेटिडों को घसीट लेते हैं। सेंट्रोमियर विभाजित नहीं होते। इस प्रकार, समजात क्रोमोसोम दो समूहों में बिलकुल अलग हो जाते हैं और कोशिका के दो ध्रुवों की ओर जाते हैं। इस अवस्था में गुणसूत्रों का विभाजन नहीं होता, बल्कि समजात गुणसूत्रों के अलग होने से गुणसूत्रों की संख्या अगुणित (haploid) हो जाती ।
इसे आसानी से समझाने के लिए बाएँ एवं दाएँ स्तंभों (left and right columns) में चार अलग प्रकार से बनाए क्रोमोसोम के विसंयोजन को दर्शाया जा रहा है। बाएँ स्तंभवाले संभावना में (संभावना I) दानेदार एवं खाली क्रोमोसोम एक साथ विसंयोजित हैं जबकि दाहिने स्तंभ में (संभावना II) दानेदार एवं गहरे भरे हुए क्रोमोसोम एक साथ विसंयोजित हो रहे हैं।
अपने तर्क में सटन एवं बोवेरी ने कहा कि क्रोमोसोम के जोड़े का अलग होना अपने में मौजूद जीन या कारकों के विसंयोजन का कारण है। इस प्रकार क्रोमोसोम के विसंयोजन के ज्ञान को मेंडल के सिद्धांतों के साथ मिलकर वंशागति का गुणसूत्रीय सिद्धांत (chromosomal theory of inheritance) प्रतिपादित किया गया।
थॉमस हंट मॉर्गन (Thomas Hunt Morgan) ने अपने साथियों के साथ फ्रूटफ्लाई ड्रोसोफिला मेलैनोगैस्टर (Drosophila melanogaster) पर अपने खोज से वंशागति के क्रोमोसोम सिद्धांत को प्रयोग द्वारा सत्यापित किया। फल पर लगनेवाली इन मक्खियों को आसानी से प्रयोगशाला में कृत्रिम माध्यमों (synthetic medium) में विकसित किया जा सकता है।
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अपना जीवन चक्र ये दो सप्ताह में पूरा कर लेती हैं एवं एक बार में जनन के बाद विशाल संख्या में संतति मक्खियों को पैदा करती हैं। इनमें नर एवं मादा की पहचान सहजता से की जा सकती है। इसके साथ-साथ इनमें आनुवंशिक विविधताओं (hereditary variations) के भिन्न-भिन्न प्रकार पाए जाते हैं। सूक्ष्मदर्शी की कम क्षमता में इसका अध्ययन आसानी से किया जाता है। इन्हीं सब फायदों के चलते फ्रूटफ्लाई को आनुवंशिक प्रयोगों के लिए बहुत ही उपयुक्त पाया गया है।
मेंडल के नियमों के अपवाद (Exceptions to Mendel’s laws) —

मेंडल के नियमों के प्रतिपादित होने के बाद आनुवंशिकता के विषय में अनेक नई सूचनाएँ प्राप्त हुई जिससे यह पता चला कि कई जगहों पर मेंडल के नियम लागू नहीं होते हैं, जैसे कुछ लक्षण एक से अधिक जीन द्वारा प्रभावित होते हैं जबकि मेंडल के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक लक्षण एक जीन द्वारा नियंत्रित होता है।
अपूर्ण प्रभाविता (Incomplete dominance) —
मेंडल का प्रयोग में चयन किये गये सात जोड़ी लक्षणों में ही एक ऐलील पूर्णरूप के प्रभावी तथा दूसरा अप्रभावी था, लेकिन कुछ ऐसा उदाहरण भी हैं जहाँ मेंडल के पूर्ण प्रभाविता का नियम लागू नहीं होता है। विपरीत जोड़ों के गुणों में एक लक्षण दूसरे लक्षण के ऊपर अपूर्ण रूप से प्रभाव दिखाता है। इसे अपूर्ण प्रभाविता (incomplete dominance) कहते हैं ।
प्रभाविता की व्याख्या (Explanation of dominance) —
प्रभाविता के नियम में आपने जाना कि दो विपरीत लक्षणवाले ऐलील जब किसी जीव में आते हैं तो उसमें सिर्फ एक बाह्य रूप से दिखाई पड़ता है जबकि दूसरा दबा हुआ रहता है। इसी आधार पर कुछ ऐलील प्रभावी एवं कुछ अप्रभावी होते हैं। ऐलील वास्तव में जीवों के लक्षणों को निर्धारित करनेवाले जीन के दो रूप होते हैं। जीन में एंजाइम को संश्लेषित करने की सूचना रहती है। सामान्यतः ऐलील एक खास एंजाइम का संश्लेषण करता है जो एक खास सब्सट्रेट के रूपांतरण के लिए जरूरी है। अगर ऐलील में किसी प्रकार का रूपांतरण हो जाए तो सैद्धांतिक तौर पर निम्नलिखित में से कोई एक स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
(i) एंजाइम सामान्य या कम क्षमता (less efficient) का हो सकता है या,
(ii) एंजाइम कार्य-अक्षम (nonfunctional) हो सकता है या,
(ii) एंजाइम का संश्लेषण रुक जा सकता है।
पहली स्थिति में रूपांतरित ऐलील अरूपांतरित ऐलील की तरह कार्य करेगा एवं सब्सट्रेट को रूपांतरित करने में सक्षम होगा तथा जीवों में सामान्य लक्षण दिखाई देंगे। इस प्रकार के ऐलील युग्मों के अनेक उदाहरण हैं जिसमें रूपांतरित ऐलील अरूपांतरित ऐलील के समकक्ष होते हैं। अन्य दोनों स्थितियों में जीवों का बाह्य रूप या फीनोटाइप प्रभावित होगा, क्योंकि इन अवस्थाओं में या तो एंजाइम कार्य-अक्षम होंगे या ये अनुपस्थित रहेंगे। ऐसी स्थिति में जीवों का फीनोटाइप सिर्फ अरूपांतरित ऐलील के कार्य पर निर्भर करता है। अरूपांतरित ऐलील को ही प्रभावी ऐलील कहा जाता है जिसपर जीवों का मौलिक लक्षण आधारित रहता है। रूपांतरित ऐलील को अप्रभावी ऐलील कहा जाता है, क्योंकि ये या तो कार्य-अक्षम एंजाइम का निर्माण करते हैं या एंजाइम का निर्माण ही नहीं कर पाते हैं।
बैंक क्रॉस एवं टेस्ट क्रॉस (Back cross and test cross ) —
जब F1 के संकर (hybrid) पौधे को किसी एक पितृ पौधे (parent generation), जिनसे वे उत्पन्न हुए, से क्रॉस कराया जाए तो इस प्रकार के क्रॉस को बैक क्रॉस कहते हैं। जब F, के संकर पौधे को समयुग्मजी अप्रभावी जनक (homozygous recessive parent) से क्रॉस कराते हैं तो उसे टेस्ट क्रॉस कहते हैं। इसे टेस्ट क्रॉस इसलिए कहा जाता है| इस प्रकार के क्रॉस से यह पता लगता है कि संकर पौधों में प्रभावी लक्षण भी विषमयुग्मजी स्थिति से चलते है या फिर समयुग्मजी स्थिति से चलते हैं |
सहप्रभाविता (Codominance) —
जब किसी जीव में ऐलील के जोड़े (pair of allele) के बीच का संबंध प्रभावी (dominant) एवं अप्रभावी (recessive) जैसा न हो, बल्कि दोनों का प्रभाव F1 संकरों पर एक साथ पड़ता हो तो ऐसी स्थिति को सहप्रभाविता (codominance) कहते हैं तथा इस प्रकार के ऐलील को सहप्रभावी ऐलील्स (codominant alleles) कहते हैं।
सहप्रभाविता अपूर्ण प्रभाविता (incomplete dominance) से इस मायने में भिन्न है कि अपूर्ण प्रभाविता में F, संकरों के समलक्षणी (phenotype) जनकों के समलक्षणी के बीच (intermediate) के होते हैं जबकि सहप्रभाविता में F, संकरों में दोनों जनकों के गुणों का अलग-अलग स्वतंत्र रूप में समावेश होता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
पशुओं में त्वचा के रंग के लिए दो जीन्स (R एवं 1 ) उत्तरदायी होते हैं। जीन R त्वचा के लाल रंग के लिए एवं जीनत्वचा के सफेद रंग के लिए होता है। जब लाल त्वचावाले मवेशी (RR) को सफेद रंग वाले मवेशी (rr) से क्रॉस करवाया जाता है तो F, पीढ़ी के संकर मवेशियों का रंग चितकबरा या रोन (roan) हो जाता है जिसमें लाल एवं सफेद रंग दोनों के धब्बे उपस्थित रहते हैं। प्रथम पीढ़ी के पशुओं के बीच जब आपस में क्रॉस करवाया जाता है तो F2 पीढ़ी में 4 संभावित पशुओं में एक लाल, एक सफेद एवं दो चितकबरे त्वचावाले पशु पैदा होते हैं। यहाँ फीनोटाइप एवं जीनोटाइप अनुपात अपूर्ण प्रभाविता की तरह ही 1: 2:1 का रहता है।
बहुविकल्पता (Multiple allelism) —
मेंडल के सिद्धांत के अनुसार गुणों या लक्षणों को निर्धारित करनेवाले जीन्स दो ऐलीलोमॉर्फिक रूपों में पाए जाते हैं, लेकिन बाद के अनुसंधानों से यह साबित हुआ कि कई लक्षण दो से ज्यादा ऐलीलों के द्वारा निर्धारित होते हैं, जैसे खरगोश के शरीर के रंग के लिए चार अथवा अधिक ऐलील पाए जाते हैं।
जब किसी एक लक्षण के लिए दो से ज्यादा वैकल्पिक ऐलील जिम्मेवार हों तो ऐसे ऐलील को बहुविकल्पी ऐलील (multiple allele) एवं इस प्रकार की स्थिति को बहुविकल्पता ( multiple allelism) कहते हैं ।
मानव रुधिर वर्ग (Human blood groups) —
बहुविकल्पता का एक आम उदाहरण मानव रुधिर वर्ग (human blood group) ABO है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक कार्ल लैंडस्टेनर [(Karl Landsteiner, 1868–1943)] ने सबसे पहले यह बताया कि मनुष्य की लाल रुधिर कोशिकाओं की कोशिका-झिल्ली पर दो प्रकार के एंटीजेन्स (antigens) जिनको एंटीजेन A तथा एंटीजेन B कहते हैं, होते हैं। इनके अतिरिक्त रुधिर प्लाज्मा में दो प्रकार के एंटीबॉडीज (antibodies), एंटीबॉडी a तथा एंटीबॉडी b पाए जाते हैं। इन्हीं की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति के आधार पर मनुष्य के रुधिर को अग्रांकित चार रुधिर वर्गों में बाँटा गया है।
- वर्ग A (Group A ) — इसमें एंटीजेन A तथा एंटीबॉडी b उपस्थित होते हैं।
- वर्ग B ( Group B) — इसमें एंटीजेन B तथा एंटीबॉडी a उपस्थित होते हैं।
- वर्ग AB (Group AB) – इस वर्ग के रुधिर में एंटीजेन A तथा एंटीजेन B उपस्थित होते हैं, परंतु एंटीबॉडीज अनुपस्थित होते हैं।
- वर्ग O (Group O) – इस वर्ग के रुधिर में एंटीबॉडी a तथा एंटीबॉडी b उपस्थित रहते हैं, परंतु एंटीजेन अनुपस्थित होता है।
जिस मनुष्य का रुधिर वर्ग A होता है वे A एंटीजेन बनाते हैं, रुधिर वर्ग B वाले B एंटीजेन तथा रुधिर वर्ग AB वाले मनुष्य दोनों प्रकार के एंटीजेन बनाते हैं। यदि रुधिर वर्ग A का रुधिर वर्ग A या AB में चढ़ाया जाए तो कोई खतरा नहीं होगा, क्योंकि ऐसे मनुष्य के रुधिर में एंटीबॉडी a अनुपस्थित होता है। परंतु, यदि रुधिर वर्ग A का रुधिर B या O में चढ़ाया जाए तब प्राप्तकर्ता के रुधिर में थक्का बन जाएगा तथा उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी, क्योंकि प्राप्तकर्ता के रुधिर में एंटबॉडी a उपस्थित है।
रुधिर वर्ग O के व्यक्ति के रुधिर में एंटीजेन्स अनुपस्थित होते हैं। अतः इनका रुधिर सभी वर्ग के व्यक्तियों को चढ़ाया जा सकता है। परंतु, O वर्ग के व्यक्ति में दोनों प्रकार के एंटीबॉडीज की उपस्थिति के कारण किसी अन्य रुधिर वर्ग का रुधिर इस वर्ग के व्यक्ति को नहीं चढ़ाया जा सकता है। इसलिए O रुधिर वर्ग का मनुष्य सर्वदाता (universal donor) कहा जाता है।
रुधिर वर्ग AB वाले मनुष्य में दोनों एंटीजेन्स होते हैं। अतः, इनका रुधिर अन्य रुधिर वर्गों के मनुष्य में रुधिर-आधान (blood transfusion) के लिए उपयुक्त नहीं है। परंतु, दोनों एंटीबॉडीज की अनुपस्थिति के कारण AB वर्ग के व्यक्ति में सभी वर्गों का रुधिर चढ़ाया जा सकता है। इसलिए AB रुधिर वर्ग के मनुष्य को सर्वप्राप्तकर्ता (universal recipient) कहा जाता है।
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इस प्रकार चार प्रकार के रुधिर वर्गों को निर्धारित करने के लिए तीन ऐलील (I^A, I^B, I^O) होते हैं जिनमें I^A एवं I^B उत्परिवर्ती ऐलील हैं जो वन्य ऐलील (wild allele ) I^O पर प्रभावी होते हैं। किसी एक मनुष्य में इन तीनों एलीलों में कोई दो ही उपस्थित रहते हैं जिनसे उनका रुधिर वर्ग निर्धारित होता है।
इस प्रकार मानव रुधिर वर्गों का निर्धारण तीन विकल्पी ऐलीलों द्वारा होता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि AB रुधिर वर्ग वाले मनुष्य में दो ऐलील (I^A एवं I^B) सहप्रभाविता (codominance) दर्शाते हैं।
मानव रुधिर वर्ग के अतिरिक्त तंबाकू में स्वबंध्यता (self sterility), कृंतकों (rodents) में त्वचा का रंग आदि बहुविकल्पता के ही उदाहरण हैं। ड्रोसोफिला (Drosophila) के आँख के रंग के लिए 15 ऐलील होते हैं। उत्परिवर्तन (mutation) के चलते दो से ज्यादा ऐलील की उत्पत्ति होती है।