जीन म्यूटेशन (Gene mutation)
किसी भी जीव की आनुवंशिक इकाई जीन होती है। सूक्ष्म स्तर पर इसमें होनेवाले किसी प्रकार के परिवर्तन को जीन उत्परिवर्तन (gene mutation) या बिंदु उत्परिवर्तन (point mutation) कहते हैं। इस प्रकार का उत्परिवर्तन आणविक स्तर (molecular level) पर होता है जिसमें DNA में परिवर्तन होता है। यह एक ट्रिप्लेट कोड (triplet code) या केवल न्यूक्लियोटाइड में अंतर आने से संभव होता है।
DNA रेप्लिकेशन (replication) के समय DNA के एक अणु से ठीक उसकी प्रतिलिपि (दूसरी अणु) तैयार होती है जिसमें जनक अणु की तरह एडीनिन (A) तथा थाइमिन (T) दो हाइड्रोजन बंधों (hydrogen bonds) द्वारा एवं ग्वानिन (G) तथा साइटोसिन (C) तीन हाइड्रोजन बंधों द्वारा जुड़े रहते हैं। किसी कारण से इस क्रम में अगर परिवर्तन हो जाए, यानि A की जगह G या C की जगह T आ जाए तो इससे जीन में उत्परिवर्तन होगा एवं प्रोटीन में भी परिवर्तन हो जाएगा।
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जीन उत्परिवर्तन मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं—

प्रतिस्थापन उत्परिवर्तन (Substitution mutation) —
इस प्रकार के उत्परिवर्तन में नाइट्रोजनी क्षारक ( nitrogenous base) में परिवर्तन हो जाता है। इसमें एक नाइट्रोजनी क्षारक की जगह दूसरे नाइट्रोजनी क्षारक या उसके कृत्रिम रूप (derivative) द्वारा प्रतिस्थापन हो जाता है।
उदाहरण के तौर पर, यदि क्षारकों (bases) का विन्यास ATT है तो इसके पूरक क्षारकों (complementary bases) की शृंखला TAA होगी। यदि किन्हीं कारकों के कारण ATT का आखिरी T बदलकर G हो जाए तो पूरक क्षारकों का विन्यास TAC हो जाएगा।
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प्रतिस्थापन उत्परिवर्तन भी दो तरह के होते हैं —
ट्रांजिशन (Transition) —
ऐसे उत्परिवर्तन, जिसके द्वारा एक प्यूरिन (purine) के जगह में दूसरा प्यूरिन या एक पाइरिमिडिन (pyrimidine) के स्थान पर दूसरा पाइरिमिडिन प्रतिस्थापित होता है, को ट्रांजिशन (transition) कहते हैं, जैसे AT → GC I
ट्रांसवर्सन (Transversion) —
ऐसे उत्परिवर्तन, जिसके द्वारा प्यूरिन के स्थान पर पाइरिमिडिन या पाइरिमिडिन के स्थान पर प्यूरिन प्रतिस्थापित हो जाए, को ट्रांसवर्सन (transversion) कहते हैं, जैसे AT → TA, GC → CG I
फ्रेम-विस्थापन उत्परिवर्तन (Frame-shift mutation) —
किसी एक नाइट्रोजनी क्षारक के DNA अणु में निवेशन (insertion) से या विलोपन deletion) से फ्रेम – विस्थापन उत्परिवर्तन होता है। एमीनो अम्लों (amino acids) की व्यवस्था एवं प्रोटीन में परिवर्तन हो जाता है। एक उदाहरण से इसे जा सकता है।
एक काल्पनिक मेसेंजर RNA (hypothetical messenger RNA) के कोडोन की व्यवस्था प्रोटीन के निम्नलिखित एमीनो अम्लों को ट्रांसलेट (translate) करेगी।

UAU CCA UAU CCA UAU
Tyrosine Proline Tyrosine Proline Tyrosine
तीसरे और चौथे क्षारक के बीच में क्षारक G के निवेशित हो जाने से एमीनो अम्लों का क्रम बिलकुल बदल जाएगा।
AUA GCC CCA UAU UCC U
Tyrosine Alanine Isoleucine Serine Isoleucine
ठीक इसी प्रकार अगर एक क्षारक C का चौथे स्थान से विलोपन हो जाए तो उत्परिवर्तन का परिणाम इस प्रकार होगा –
UAU CAU AUC CAU AU
Tyrosine Histidine Isoleucine Histidine
इस प्रकार एक क्षारक के निवेशन या विलोपन से प्रोटीन बदल जाएँगे और उत्परिवर्तन के चलते जीवों के लक्षणों में परिवर्तन आ जाएगा।
स्वतः तथा प्रेरित उत्परिवर्तन (Spontaneous and induced mutation) —
स्वतः उत्परिवर्तन प्रकृति में स्वाभाविक ढंग से होता है। इसमें किसी उत्परिवर्तजन या म्यूटाजेन (mutagen) की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, जैसे त्वचा तथा आँखों के रंग का लक्षण । वे सभी उत्परिवर्तन जिनका अध्ययन ह्यूगो डि व्रीज तथा मॉर्गन ने किया था इसी श्रेणी में आते हैं।
प्रेरित उत्परिवर्तन में म्यूटाजेन की आवश्यकता होती है। म्यूटाजेन या तो रासायनिक पदार्थ हो सकते हैं या भौतिक (physical)। आयनकारी विकिरण (ionizing radiations), एक्स-रेज (X-rays), मा-रेज (γ-rays) आदि भौतिक म्यूटाजेन हैं। मुलर ने ड्रोसोफिला में तथा स्टैडलर ने मक्का एवं जौ में आयनकारी विकिरणों का प्रयोग कर प्रेरित उत्परिवर्तन का अध्ययन किया। रासायनिक म्यूटाजेन (chemical mutagens) में मस्टर्ड गैस (mustard gas), EMS (ethyl-methyl sulphonate), हाइड्राजीन, हाइड्रॉक्सिल एमीन, कोलचिसिन (colchicine) आदि प्रमुख हैं।
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आणविक स्तर पर कुछ उत्परिवर्तन (Mutations at molecular level) —
उत्परिवर्तन में ट्रिप्लेट कोड (triplet code) के न्यूक्लियोटाइड्स में परिवर्तन आने पर भी कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि दोनों ही कोडॉन (codon) एक ही एमीनो अम्ल के लिए संकेत करते हैं, जैसे —
GGU → GGC
ये दोनों ही ग्लाइसीन (glycine) के कोडॉन हैं।
निरर्थक उत्परिवर्तन (Nonsense mutation) –
इसमें एक सार्थक ट्रिप्लेट कोड जो किसी एमीनो अम्ल का संकेत करता है, ऐसे ट्रिप्लेट कोड में परिवर्तित हो जाता है जिससे प्रोटीनसंश्लेषण की क्रिया का उसी स्थान पर अंत हो जाता है। ऐसे ट्रिप्लेट कोड्स को टरमिनेशन कोडॉन कहते हैं, जैसे —
UAC → UAG
म्यूटेशन की भूमिका (Role of mutation) —
उत्परिवर्तन साधारणतया हानिकारक तथा अप्रभावी (recessive) होता है। समजात क्रोमोसोम के दो में से एक ही क्रोमेटिड में म्यूटेशन होता है, अतः M1 (first mutant generation) में यह विदित नहीं होता जब तक कि होमोजाइगस अवस्था न हो।
उत्परिवर्तन से बननेवाली लाभदायक भिन्नताएँ प्राकृतिक वरण (natural selection) के द्वारा चुन ली जाती हैं एवं विकास के प्राथमिक कारक का कार्य करती हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार केवल 0.1% म्यूटेंट उपजातियाँ ही अब तक लाभकारी सिद्ध हुई हैं। उत्परिवर्तन का उपयोग पादप प्रजनन (plant breeding) में किया गया है एवं अनेक नई प्रजातियाँ विकसित की गई हैं।
पादप-विकास में उत्परिवर्तन की भूमिका (Role of mutation in plant improvement) —
पौधों की नई-नई उन्नत किस्में उत्परिवर्तन द्वारा विकसित की गई हैं। फलों एवं सब्जियों की अच्छी किस्में भी इसके द्वारा पैदा की गई हैं। उत्परिवर्तित उपजातियों में निम्नलिखित प्रमुख हैं।
- गेहूँ की शर्बती सोनारा (Sharbati sonora) उपजाति का उत्पादन डॉ० एम० एस० स्वामीनाथन ने मेक्सिकन किस्म से किया। इसमें पाए जानेवाले प्रोटीन में 9% से 14% की बढ़ोतरी हुई।
- धान की एक उत्परिवर्तित उपजाति रेमिआइ (Reimei) का उत्पादन गामा किरणों के प्रयोग से किया गया। इससे कम समय में अधिक गुणवत्तावाली फसल की प्राप्ति होने लगी।
- जौ की उत्परिवर्तित किस्में तैयार की गईं जो पुरानी किस्मों से अनेक गुणों में श्रेष्ठ थीं।
- कवक पेनिसिलियम (Penicillium) की उत्परिवर्तित उपजाति से विश्वविख्यात एंटीबायोटिक पेनिसिलीन (penicillin) अधिक मात्रा में प्राप्त होती है।
- अंडी (castor) की उत्परिवर्तित उपजाति अरुणा की फसल बहुत कम समय में तैयार हो जाती है।
- पीपरमिण्ट, सरसों, अरहर, बाजरा, कपास, गन्ना, जूट आदि की नई उन्नत किस्में, नाशपाती की अच्छी उपजाति, कई शोभाकारी (ornamental) पौधों का उत्पादन आदि लगभग 150 पौधों की उत्परिवर्तित उपजातियाँ प्राप्त की गई हैं।
उत्परिवर्तन का कार्बनिक विकास में योगदान (Role of mutation in organic evolution) —
ह्यूगो डि ब्रीज ने अपने अध्ययनों से यह सिद्ध किया कि जीवों के विकास में उत्परिवर्तन की मुख्य भूमिका है। उनके इस सिद्धांत को उत्परिवर्तनवाद (mutation theory) कहते हैं। इसके अनुसार उत्परिवर्तन पित्रागत होते हैं और जीवों की नई जातियाँ इसी के फलस्वरूप पैदा होती हैं। उत्परिवर्ती जीवों में प्रतियोगिता (competition) होती है एवं जो जीव वातावरण के अनुकूल रहते हैं.
उनका प्राकृतिक वरण (natural selection) होता है एवं अनुपयुक्त उत्परिवर्ती जीव नष्ट हो जाते हैं। इस तरह डार्विन (Charles Darwin) एवं वैलेस (Alfred Russel Wallace) से ह्यूगो डि ब्रीज इस बात में सहमत थे कि प्राकृतिक वरण के द्वारा अनुपयोगी जीवों का नाश हो जाता है, लेकिन इनका मानना था कि नई जातियाँ सतत विभिन्नताओं (continuous variations) से नहीं, बल्कि उत्परिवर्तन से पैदा होती हैं। योग्यतम उत्परिवर्तन से प्राकृतिक वरण के बाद नई जातियाँ विकसित होती हैं।
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